श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Tuesday, December 20, 2011

अखण्ड आत्मदेव की उपासना



भगवान शंकर श्री वशिष्ठ मुनि से कहते हैं-
"हे ब्राह्मण ! जो उत्तम देवार्चन हैं और जिसके किये से जीव संसारसागर से तर जाता है, सो सुनो। हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ! पुण्डरीकाक्ष विष्णु देव नहीं और त्रिलोचन शिव भी देव नहीं। कमल से उपजे ब्रह्मा भी देव नहीं और सहस्रनेत्रइन्द्र भी देव नहीं। न देव पवन है, न सूर्य है न अग्नि, न चन्द्रमा है, न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न तुम हो, न मैं हूँ। अकृत्रिम, अनादि, अनन्त और संवितरूप ही देव कहाता है। आकारादिक परिच्छिन्नरूप हैं। वे वास्तव में कुछ नहीं। एक अकृत्रिम, अनादि चैतन्यस्वरूप देव है। वही 'देव' शब्द का वाचक है और उसी का पूजन वास्तव में पूजन है। जिससे यह सब हुआ है और सत्ता शांत, आत्मरूप है, उस देव को सर्वत्र व्याप्त देखना ही उसका पूजन है। जो उस संविततत्त्व को नहीं जानते, उनके लिए साकार की अर्चना का विधान है। जैसे, जो पुरुष योजनपर्यन्त नहीं चल सकता, उसको एक कोस-दो कोस चलना भी भला है। जो परिच्छिन्न (खण्डित) की उपासना करता है, उसको फल भी परिच्छिन्न (खण्डित) प्राप्त होता है और जो अकृत्रिम आनन्दस्वरूप अनन्त देव की उपासना करता है, उसको वही परमात्मारूपी फल प्राप्त होता है। हे साधो ! अकृत्रिम फल त्यागकर जो कृत्रिम को चाहते हैं वे ऐसे हैं जैसे कोई मन्दार वृक्ष के वन को त्यागकर कंटक के वन को प्राप्त हो।
वह देव कैसा है, उसकी पूजा क्या है और कैसे होती है, सुनो।
बोध, साम्य और शम ये तीन फूल हैं। 'बोध' सम्यक ज्ञान का नाम है, अर्थात् आत्मतत्त्व को ज्यों-का-त्यों जानना। 'साम्य' सबमें पूर्ण देखने को कहते हैं और शम का अर्थ है चित्त को निवृत्त करना और आत्मतत्त्व से भिन्न कुछ न देखना। इन्हीं तीनों फूलों से चिन्मात्र शुद्ध देव शिव की पूजा होती है, आकार की अर्चना से अर्चना नहीं होती।
चिन्मात्र आत्मसंवित् का त्याग कर अन्य जड़ की जो अर्चना करते हैं, वे चिरकाल पर्यन्त क्लेश के भागी होते हैं। हे मुनि ! जो ज्ञातेज्ञेय पुरुष हैं वे आत्मा भगवान एक देव है। वही शिव और परम कल्याणरूप है। सर्वदा ज्ञान-अर्चना से उसकी पूजा करो, और कोई पूजा नहीं है। पूज्य, पूजक और पूजा इस त्रिपुटी से आत्मदेव की पूजा नहीं होती।
यह सब विश्व केवल परमात्मरूप है। परमात्माकाश ब्रह्म ही एक देव कहाता है। उसी का पूजन सार है और उसी से सब फल प्राप्त होते हैं। वह देव सर्वज्ञ हैं और सब उसमें स्थित हैं। वह अकृत्रिम देव अज, परमानन्द और अखन्डरूप है। उसको अवश्य पाना चाहिए जिससे परम सुख प्राप्त होता है।
हे मुनीश्वर ! तुम जागे हुए हो, इस कारण मैंने तुमसे इस प्रकार की  देव-अर्चना कही है। पर जो असम्यकदर्शी बालक हैं, जिनको निश्चयात्मक बुद्धि नहीं प्राप्त हुई है उनके लिए धूप, दीप, पुष्प, चंदन आदि से अर्चना कही है और आकार कल्पित करके देव की मिथ्या कल्पना की है। अपने संकल्प से जो देव बनाते हैं और उसको पुष्प, धूप, दीपादिक से पूजते हैं सो भावनामात्र है। उससे उनको संकल्परचित फल की प्राप्ति होती है। यह बालक बुद्धि की अर्चना है।
हे मुनीश्वर ! हमारे मत में तो देव और कोई नहीं। एक परमात्मा देव ही तीनों भुवनों में है। वही देव शिव और सर्वपद से अतीत है। वह सब संकल्पों से अतीत है।
जो चैतन्यतत्त्व अरुन्धती का है और जो चैतन्यतत्त्व तुम निष्पाप मुनि का और पार्वती का है, वही चैतन्य तत्त्व मेरा है। वही चैतन्यतत्त्व त्रिलोकी मात्र का है। वही देव है, और कोई देव नहीं। हाथ-पाँव से युक्त जिस देव की कल्पना करते हैं वह चिन्मात्र सार नहीं है। चिन्मात्र ही सब जगत का सारभूत है और वही अर्चना करने योग्य है। यह देव कहीं दूर नहीं और किसी प्रकार किसी को प्राप्त होना भी कठिन नहीं। जो सबकी देह में स्थित और सबका आत्मा है वह दूर कैसे हो और कठिनता से कैसे प्राप्त हो ? सब क्रिया वही करता है। भोजन, भरण और पोषण वही करता है। वही श्वास लेता है। सबका ज्ञाता भी वही है। मनसहित षट्इन्द्रियों की चेष्टा निमित्त तत्त्ववेत्ताओं ने 'देव' कल्पित की है। एकदेव, चिन्मात्र, सूक्ष्म, सर्वव्यापी, निरंजन, आत्मा, ब्रह्म इत्यादि नाम ज्ञानवानों ने उपदेशरूप व्यवहार के निमित्त रखे हैं। वह आत्मदेव नित्य, शुद्ध और अद्वैतरूप है और सब जगत में अनुस्यूत है। वही चैतन्य तत्त्व चतुर्भुज होकर दैत्यों का नाश करता है, वही चैतन्य तत्त्व त्रिनेत्र, मस्तक पर चन्द्र धारण किये, वृषभ पर आरूढ़, पार्वतीरूप कमलिनी के मुख का भँवरा बनकर रूद्र होकर स्थित होता है। वही चेतना विष्णुरूप सत्ता है, जिसके नाभिकमल से ब्रह्म उपजे हैं। वह चैतन्य मस्तक पर चूड़ामणि धारनेवाला त्रिलोकपति रूद्र है। देवता रूप होकर वही स्थित हुआ है और दैत्यरूप होकर भी वही स्थित है।
हे मुनीश्वर ! वही चेतन शिवरूप होकर उपदेश दे रहा है और वही चेतन वशिष्ठ होकर सुन रहा है। उस परम चैतन्यदेव को जानना ही सच्ची अर्चना है।"