श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Sunday, November 21, 2010

जिसका चित्त एक क्षण भी आत्मतत्त्व में स्थित होता है उसकी अत्यन्त समाधि है

हे साधो! जिनका नित्य प्रबुद्ध चित्त है वे जगत् के कार्य भी करते हैं पर आत्मतत्त्व में स्थित हैं तो वह सर्वदा समाधि में स्थित हैं और जो पद्मासन बाँधकर बैठते हैं और ब्रह्माञ्जली हाथ में रखते हैं पर चित्त आत्मपद में स्थित नहीं होता और विश्रान्ति नहीं पाते तो उनको समाधि कहाँ? वह समाधि नहीं कहती । हे भगवन्! परमार्थ तत्त्वबोध आशारूपी सब तृणों के जलानेवाली अग्नि है । ऐसी निराशरूपी जो समाधि वही समाधि है । तूष्णीम होने का नाम समाधि नहीं है । हे साधो! जिसका चित्त समाहित, नित्यतृप्त और सदा शान्तरूप है और जो यथा भूतार्थ है अर्थात् जिसे ज्यों का त्यों ज्ञान हुआ है और उसमें निश्चय है वह समाधि कहाती है, तूष्णीम् होने का नाम समाधि नहीं है, जिसके हृदय में संसाररूप सत्यता का क्षोभ नहीं है, जो निरहंकार है और अनउदय ही उदय है वह पुरुष समाधि में कहाता है । ऐसा जो बुद्धिमान है वह सुमेरु से भी अधिक स्थित है । हे साधो! जो पुरुष निश्चिन्त है, जिसका ग्रहण और त्याग बुद्धि निवृत्त हुई है जिसे पूर्ण आत्मतत्त्व ही भासता है वह व्यवहार भी करता दृष्ट आता है तो भी उसकी समाधि है । जिसका चित्त एक क्षण भी आत्मतत्त्व में स्थित होता है उसकी अत्यन्त समाधि है और क्षण-क्षण बढ़ती जाती है निवृत्त नहीं होती । जैसे अमृत के पान किये से उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है तैसे ही एक क्षण को भी समाधि बढ़ती ही जाती है । जैसे सूर्य के उदय हुए सब किसी को दिन भासता है तैसे ही ज्ञानवान् को सब आत्मतत्त्व भासता है-कदाचित् भिन्न नहीं भासता । जैसे नदी का प्रवाह किसी से रोका नहीं जाता तैसे ही ज्ञानवान् की आत्मदृष्टि किसी से रोकी नहीं जाती और जैसे काल की गति काल को एक क्षण भी विस्मरण नहीं होती तैसे ही ज्ञानवान् की आत्मदृष्टि विस्मरण नहीं होती । जैसे चलने से ठहरे पवन को अपना पवनभाव विस्मरण नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् को चिन्मात्र तत्त्व का विस्मरण नहीं होता और जैसे सत् शब्द बिना कोई पदार्थ सिद्ध नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् को आत्मा के सिवाय कोई पदार्थ नहीं भासता । जिस ओर ज्ञानवान् की दृष्टि जाती है उसे वहाँ अपना आप ही भासता है-जैसे उष्णता बिना अग्नि नहीं, शीतलता बिना बरफ नहीं और श्यामता बिना काजर नहीं होता तैसे आत्मा बिना जगत् नहीं होता । हे साधो! जिसको आत्मा से भिन्न पदार्थ कोई नहीं भासता उसको उत्थान कैसे हो? मैं सर्वदा बोधरूप, निर्मल और सर्वदा सर्वात्मा समाहितचित हूँ, इससे उत्थान मुझको कदाचित् नहीं होगा । आत्मा से भिन्न मुझको कोई नहीं भासता सब प्रकार आत्मतत्त्व ही मुझको भासता है । हे साधो! आत्मतत्त्व सर्वदा जानने योग्य है । सर्वदा और सब प्रकार आत्मा स्थित है, फिर समाधि और उत्थान कैसे हो? जिसको कार्य कारण में विभाग कलना नहीं फुरती और जो आत्मतत्त्व में ही स्थित है उसको समाहित असमाहित क्या कहिये? समाधि और उत्थान का वास्तव में कुछ भेद नहीं । आत्म तत्त्व सदा अपने आप में स्थित है, द्वैतभेद कुछ नहीं तो समाहित असमाहित क्या कहिये?

Monday, November 8, 2010

हे मन! तेरा होना दुःख का कारण है

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पूर्व में जैसे उद्दालक भूतों के समूह को विचार करके परमपद को प्राप्त हुआ है सो तुम सुनो । हे रामजी! जगत्‌रूपी जीर्णघर के वायव्यकोण में एक देश है जो पर्वत और तमालादि वृक्षों से पूर्ण है और महामणियों का स्थान है । उस स्थान में उद्दालक नाम एक बुद्धिमान् ब्राह्मण मान करने के योग्य विद्यमान था परन्तु अर्ध प्रबुद्ध था, क्योंकि परमपद को उसने न पाया था । वह ब्राह्मण यौवन अवस्था के पूर्व ही शुभेच्छा से शास्त्रोंक्त यम, नियम और तप को साधने लगा तब उसके चित्त में यह विचार उत्पन्नहुआ कि हे देव! जिसके पाने से फिर कुछ पाने योग्य न रहे , जिस पद में विश्राम पाने से फिर शोक न हो और जिसके पाने से फिर बन्धन न रहे ऐसा पद मुझको कब प्राप्त होगा? कब मैं मन के मनन भाव को त्यागकर विश्रान्तिमान् हूँगा-जैसे मेघ भ्रमने को त्यागकर पहाड़ के शिखर में विश्रान्ति करता है-और कब चित्त की दृश्यरूप वासना मिटेगी जैसे तरंग से रहित समुद्र शान्तमान् होता है तैसे ही कब मैं मन के संकल्प विकल्प से रहित शान्तिमान् हूँगा? तृष्णारूपी नदी को बोधरूपी बेड़ी और संत् संग और सत्‌शास्त्ररूपी मल्लाह से कब तरूँगा, चित्तरूपी हाथी जो अभिमानरूपी हाथी जो अभिमानरूपी मद से उन्मत्त है उसको विवेकरूपी अंकुश से कब मारूँगा और ज्ञानरूपी सूर्य से अज्ञानरूपी अन्धकार कब नष्ट करूँगा? हे देव! सब आरम्भों को त्यागकर मैं अलेप और अकर्ता कब होऊँगा? जैसे जल में कमल अलेप रहता है तैसे ही मुझको कर्म कब स्पर्श न करेंगे? मेरा परमार्थरूपी भास्वर वपु कब उदय होगा जिससे मैं जगत् की गति को देखकर हँसूँगा हृदय में सन्तोष पाऊँगा और पूर्णबोध विराट् आत्मा की नाईं होऊँगा? वह समय कब होगा कि मुझ जन्मों के अन्धे को ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होगा, जिससे मैं परमबोध पद को देखूँगा? वह समय कब होगा जब मेरा चित्तरूपी मेघ वासना रूपी वायु से रहित आत्मरूपी सुमेरु पर्वत में स्थित होकर शान्तमान् होगा? अज्ञान दशा कब जावेगी और ज्ञानदशा कब प्राप्त होगी? अब वह समय कब होगा कि मन और काया और प्रकृति को देख कर हँसूँगा? वह समय कब होगा जब जगत् के कर्मों को बालक की चेष्टावत् मिथ्या जानूँगा और जगत् मुझको सुषुप्ति की नाईं हो जावेगा । वह समय कब होगा जब मुझको पत्थर की शिलावत् निर्विकल्प समाधि लगेगी और शरीर रूपी वृक्ष में पक्षी आलय करेंगे और निस्संग होकर छाती पर आन बैठेंगे? हे देव! वह समय कब होगा जब इष्ट अनिष्ट विषय की प्राप्ति से मेरे चित्त की वृत्ति चलायमान न होगी और विराट की नाईं सर्वात्मा होऊँगा? वह समय कब होवेगा जब मेरा सम असम आकार शान्त हो जावेगा और सब अर्थों से निरिच्छितरूप मैं हो जाऊँगा? कब मैं उपशम को प्राप्त होऊँगा-जैसे मन्दराचल से रहित क्षीरसमुद्र शान्तिमान् होता है-और कब मैं अपना चेतन वपु पाकर शरीर को अशरीरवत् देखूँगा? कब मेरी पूर्ण चिन्मात्र वृत्ति होगी और कब मेरे भीतर बाहर की सब कलना शान्त हो जावेंगी और सम्पूर्ण चिन्मात्र ही का मुझे भान होगा? मैं ग्रहण त्याग से रहित कब संतोष पाऊँगा और अपने स्वप्रकाश में स्थित होकर संसाररूपी नदी के जरामरणरूपी तरंगों से कब रहित होऊँगा और अपने स्वभाव में कब स्थित होऊँगा? हे रामजी! ऐसे विचारक उद्दालक चित्त को ध्यान में लगाने लगा, परन्तु चित्तरूपी वानर दृश्य की ओर निकल जाये पर स्थित न हो । तब वह फिर ध्यान में लगावे और फिर वह भोगों की ओर निकल जावे । जैसे वानर नहीं ठहरता तैसे ही चित्त न ठहरे । जब उसने बाहर विषयों को त्यागकर चित्त को अन्तर्मुख किया तब भीतर जो दृष्टि आई तो भी विषयों को चिन्तने लगा, निर्विकल्प न हो और जब रोक रक्खे तब सुषुप्ति में लीन हो जावे । सुषुप्ति और लय जो निद्रा है उसही में चित्त रहे । तब वह वहाँ से उठकर और स्थान को चला-जैसे सूर्य सुमेरु की प्रदक्षिणा को चलाता है और गन्धमादन पर्वत की एक कन्दरा में स्थित हुआ जो फूलों से संयुक्त सुन्दर और पशु पक्षी मृगों से रहित एकान्त स्थान था और जो देवता को भी देखना कठिन था । वहाँ अत्यन्त प्रकाश भी न था और अत्यन्त तम भी न था, न अत्यन्त उष्ण था और न शीत जैसे मधुर कार्त्तिक मास होता है तैसे ही वह निर्भय एकान्त स्थान था । जैसे मोक्ष पदवी निर्भय एकान्तरूप होती है तैसे ही उस पर्वत में कुटी बना और उस कुटी में तमाल पर और कमलों का आसनकर और ऊपर मृगछाला बिछाकर वह बैठा और सब कामना का त्यागकिया । जैसे ब्रह्माजी जगत् को उपजाकर छोड़ बैठे तैसे ही वह सब कलना को त्याग बैठा और विचार करने लगा कि अरे मूर्ख मन! तू कहाँ जाता है, यह संसार मायामात्र है और इतने काल तू जगत् में भटकता रहा, पर कहीं तुझको शान्ति न हुई, वृथा धावता रहा । हे मूर्ख मन! उपशम को त्यागकर भोगों की ओर धावता है सो अमृत को त्यागकर विषका बीज बोता है, यह सब तेरी चेष्टा दुःखोंके निमित्त है । जैसे कुशवारी अपना घर बनाकर आप ही को बन्धन करती है तैसे ही तू भी आपको आप संकल्प उठाकर बन्धन करता है । अब तू संकल्प के संसरने को त्यागकर आत्मपद में स्थित हो कि तुझको शान्ति हो । हे मन जिह्वा के साथ मिलकर जो तू शब्द करता है वह दर्दुर के शब्दवत् व्यर्थ है । कानों के साथ मिलकर सुनता है तब शुभ अशुभ वाक्य ग्रहण करके मृग की नाईं नष्ट होता त्वचा के साथ मिलकर जो तू स्पर्श की इच्छा करता है सो हाथी की नाईं नष्ट होता है, रसना के स्वाद की इच्छा से मछली की नाईं नष्ट होता है और गन्ध लेने की इच्छा से भँवरे की नाईं नष्ट हो जावेगा । जैसे भँवरा सुगन्ध के निमित्त फूल में फँस मरता है तैसे तू फँस मरेगा और सुन्दर स्त्रियों की वाच्छा से पतंग की नाईं जल मरेगा । हे मूर्ख मन! जो एक इन्द्रिय का भी स्वाद लेते हैं वे नष्ट होते हैं तू तो पञ्चविषय का सेवनेवाला है क्या तेरा नाश न होगा ।इससे तू इनकी इच्छा त्याग कि तुझको शान्ति हो । जो इन भोगों की इच्छा न त्यागेगा तो मैं ही तुझको त्यागूँगा । तू तो मिथ्या असत्यरूप है तुझको मेरा क्या प्रयोजन है । विचार कर मैं तेरा त्याग करता हूँ । हे मूर्ख मन! जो तू देह में अहं अहं करता है सो तेरा अहं किस अर्थ का है । अंगुष्ठ से लेकर मस्तक पर्यन्त अहं वस्तु कुछ नहीं । यह शरीर तो अस्थि, माँस और रक्त का थैला है, यह तो अहंरूप नहीं और पोल आकाशरूप है । यह पञ्चतत्त्वों का जो शरीर बना है उसमें अहंरूप वस्तु तो कुछ नहीं है । हे मूर्ख मन! तू अहं अहं क्यों करता है? यह जो तू कहता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ मैं स्पर्श करता हूँ, मैं स्वाद लेता हूँ और इनके इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष से जलता है सो वृथा कष्ट पाता है । रूप को नेत्र ग्रहण करते हैं, नेत्र रूप से उत्पन्न हुए हैं और तेज का अंश उनमें स्थित है जो अपने विषय को ग्रहण करता है, इसके साथ मिलकर तू क्यों तपायमान होता है? शब्द आकाश में उत्पन्न हुआ है और आकाश का अंश श्रवण में स्थित है जो अपने गुण शब्द को ग्रहण करता है इसके साथ मिलकर तू क्यों रागद्वेष कर तपायमान होता है? स्पर्श इन्द्रिय वायु से उत्पन्न हुई है और वायु का अंश त्वचा में स्थित है वही स्पर्श को ग्रहण करता है, उससे मिलकर तू क्यों रागद्वेष से तपायमान होता है? रसना इन्द्रिय जल से उत्पन्न हुई है और जल का अंश जिह्वा है जो अग्रभाग में स्थित है वही रस ग्रहण करती है, इससे मिलकर तू क्यों वृथा तपाय मान होता है? और घ्राण इन्द्रिय गन्ध से उपजी है और पृथ्वी का अंश घ्राण में स्थित है वही गन्ध को ग्रहण करती है, उसमें मिलकर तू क्यों वृथा रागद्वेषवान् होता है? मूर्ख मन! इन्द्रियाँ तो अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं पर तू इनमें अभिमान करता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, मैं स्पर्श करता हूँ और रस लेता हूँ । यह इन्द्रियाँ तो सब आत्मभर हैं अर्थात् अपने विषय को ग्रहण करती हैं और के विषय को ग्रहण नहीं करती कि नेत्र देखते हैं श्रवण नहीं करते और कान सुनते हैं देखते नहीं इत्यादिक । सब इन्द्रियाँ अपना धर्म किसी को देती भी नहीं और न किसी का लेती हैं । वे अपने धर्म में स्थित हैं और विषय को ग्रहण कर इनको रागद्वेष कुछ नहीं होता । इनको ग्रहण करने की वासना भी कुछ नहीं होती और तू ऐसा मूर्ख है कि औरों के धर्म आपमें मानकर रागद्वेष से जलता है । जो तू भी राग द्वेष से रहित होकर चेष्टा करे तो तुझको दुःख कुछ न हो । जो वासना सहित कर्म करता है वह बन्धन का कारण होता है, वासना बिना कुछ दुःख नहीं होता । तू मूर्ख है जो विचार कर नहीं देखता इससे मैं तुझको त्याग करता हूँ । तेरे साथ मिल के मैं बड़े खेद पाता हूँ । जैसे भेड़िये के बालक को सिंह चूर्ण करता है तैसे ही तूने मुझको चूर्ण किया है । तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हुआ हूँ । अब तेरे साथ मेरा प्रयोजन कुछ नहीं, मैं तो निर्विकल्प शुद्ध चिदानन्द हूँ । जैसे महाकाशा घट से मिल कर घटाकाश होता हे तैसे ही तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हो गया हूँ । इस कारण मैं तेरा संग त्यागकर परम चिदाकाश को प्राप्त होऊँगा । मैं निर्विकार हूँ और अहं त्वं की कल्पना से रहित हूँ । तू क्यों अहं त्वं करता है? शरीर में व्यर्थ अहं करनेवाला और कोई नहीं तू ही चोर है । अब मैंने तुझको पकड़कर त्याग दिया है । तू तो अज्ञान से उपजा मिथ्या और असत्यरूप है जैसे बालक अपनी परछाहीं में वैताल जानकर आप भय पाता है तैसे ही तूने सबको दुःखी किया है । जब तेरा नाश होगा तब आनन्द होगा । तेरे उपजने से महादुःख है-जैसे कोई ऊँचे पर्वत से गिरके कूप में जा पड़े और कष्टवान हो तैसे ही तेरे संग से मैं आत्मपद से गिरा देह अभिमानरूपी गढ़े में रागद्वेषरूपी दुःख पाता था, पर अब तुझको त्यागकर मैं निरहंकारपद को प्राप्त हुआ हूँ । वह पद न प्रकाश है, न एक है, न दो है, न बड़ा है और न छोटा है, अहं त्वं आदि से रहित अचैत्य चिन्मात्र है । जरा मृत्यु रागद्वेष और भय सब तेरे संयोग से होते हैं । अब तेरे वियोग से मैं निर्विकार शुद्ध पद को प्राप्त होता हूँ । हे मन! तेरा होना दुःख का कारण है । जब तू निर्वाण हो जावेगा तब मैं ब्रह्मरूप होऊँगा । तेरे संग से मैं तुच्छ हुआ हूँ, जब तू निवृत्त होगा तब मैं शुद्ध होऊँगा-जैसे मेघ और कुहिरे के होने से आकाश मलीन भासता है पर जब वर्षा हो जाती है तब शुद्ध और निर्मल हो रहता है, तैसे ही तेरे निवृत्त हुए निर्लेप अपना आप आत्मा भासता है । हे चित्त! ये जो देह इन्द्रियादिक पदार्थ हैं सो भिन्न हैं, इनमें अहं वस्तु कुछ नहीं, इनको एक तूने ही इकट्ठी किया है । जैसे एक तागा अनेक मणियों को इकट्ठा करता है तैसे ही सबको इकट्ठा करके तू अहं अहं करता है । तू मिथ्या रागद्वेष करता है इससे तू शीघ्र ही सब इन्द्रियों को लेकर निर्वाण हो जिससे तेरी जय हो । 

Tuesday, November 2, 2010

जीना उनका श्रेष्ठ है जो आत्मपद के निमित्त यत्न करते हैं

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह माया संसारचक्र है उसका बड़ा तीक्ष्ण वेग है और सब अंगों को छेदनेवाला है, जिससे यह चक्र और इस भ्रम से छूटूँ वही उपाय कहिये । 
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो माया मय संसारचक्र है उसका नाभिस्थान चित्त है । जब चित्त वश हो तब संसारचक्र का वेग रोका जावे, और किसी प्रकार नहीं रोका जाता । हे रामजी! इस वार्त्ता को तू भली प्रकार जानता है । हे निष्पाप! जब चक्र की नाभि रोकी जाती है तब चक्र स्थित हो जाता है-रोके बिना स्थित नहीं होता । संसाररूपी चक्र की चित्त्‌रूपी नाभि को जब रोकते हैं तब यह चक्र भी स्थित हो जाता है-रोके बिना यह भी स्थित नहीं होता । जब चित्त को स्थित करोगे तब जगत्‌भ्रम निवृत्त हो जावेगा और जब चित्त,स्थित होता है तब परब्रह्म प्राप्त होता है । तब जो कुछ करना था सो किया होता है और कृतकृत्य होता है और जो कुछ प्राप्त होना था सो प्राप्त होता है-फिर कुछ पाना नहीं रहता । इससे जो कुछ तप, ध्यान, तीर्थ, दान आदिक उपाय हैं उन सबको त्यागकर चित्त के स्थित करने का उपाय करो । सन्तों के संग और ब्रह्मविद् शास्त्रों के विचार से चित्त आत्मपद में स्थित होगा । जो कुछ सन्तों और शास्त्रों ने कहा है उसका बारम्बार अभ्यास करना और संसार को मृगतृष्णा के जल और स्वप्नवत् जानकर इससे वैराग्य करना । इन दोनों उपायों से चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी और किसी उपाय से आत्मपद की प्राप्ति न होवेगी । हे रामजी! बोलने चालने का वर्जन नहीं, बोलिये, दान दीजिये अथवा लीजिये परन्तु भीतर चित्त को मत लगाओ इनका साक्षी जानने वाला जो अनुभव आकाश है उसकी ओर वृत्ति हो । युद्ध करना हो तो भी करिये परन्तु वृत्ति साक्षी ही की ओर हो और उसी को अपना रूप जानिये और स्थित होइये । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ये जो पाँच विषय इन्द्रियों के हैं इनको अंगीकार कीजिये परन्तु इनके जाननेवाले साक्षी में स्थित रहिये । तेरा निजस्वरूप वही चिदाकाश है, जब उसका अभ्यास बारम्बार करियेगा तब चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी । हे रामजी! जब तक चित्त आत्मपद में स्थित नहीं होता तब तक जगत्‌भ्रम भी निवृत्त नहीं होता । इस चित्त के संयोग से चेतन का नाम जीव है । जैसे घट के संयोग से आकाश को घटाकाश कहते हैं पर जब घट टूट जाता है तब महाकाश ही रहता है, तैसे ही जब चित्त का नाश होगा तब यह जीव चिदाकाश ही होगा । यह जगत् भी चित्त में स्थित है, चित्त के अभाव हुए जगत्भ्रम शान्त हो जावेगा । हे रामजी! जब तक चित्त है तब तक संसार भी है, जैसे जब तक मेघ है तब तक बूँदे भी हैं और जब मेघ नष्ट हो जावेगा तब बूँदें भी न रहेंगी । जैसे जब तक चन्द्रमा की किरणें शीतल हैं तब तक चन्द्रमा के मण्डल में तुषार है तैसे ही जब तक चित्त है तब तक संसारभ्रम है ।जैसे माँस का स्थान श्मशान होता है और वहाँ पक्षी भी होते और ठौर इकट्ठे नहीं होते, तैसे ही जहाँ चित्त है वहाँ रागद्वेषादिक विचार भी होते हैं और जहाँ चित्त का अभाव है वहाँ विकार का भी अभाव है । हे रामजी! जैसे पिशाच आदिक की चेष्टा रात्रि में होती है, दिन में नहीं होती, तैसे ही राग, द्वेष, भय, इच्छा आदिक विकार चित्त में होते हैं । जहाँ चित्त नहीं वहाँ विकार भी नहीं-जैसे अग्नि बिना उष्णता नहीं होती,शीतलता बिना बरफ नहीं होती, सूर्य बिना प्रकाश नहीं होता और जल बिना तरंग नहीं होते तैसे ही चित्त बिना जगत्‌भ्रम नहीं होता । हे रामजी! शान्ति भी इसी का नाम है और शिवता भी वही है, सर्वज्ञता भी वही है जो चित्त नष्ट हो, आत्मा भी वही है और तृप्तता भी वही है पर जो चित्त नष्ट नहीं हुआ तो इतने पदों में कोई भी नहीं है । हे रामजी! चित्त से रहित चेतन चैतन्य कहाता है और अमनशक्ति भी वही है, जबतक सब कलना से रहित बोध नहीं होता तबतक नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और जब वस्तु का बोध हुआ तब एक अद्वैत आत्मसत्ता भासती है । हे रामजी! ज्ञानसंवित् की ओर वृत्ति रखना, जगत् की ओर न रखना और जाग्रत की ओर न जाना । जाग्रत के जाननेवाले की ओर जाना स्वप्न और सुषुप्ति की ओर न जाना । भीतर के जाननेवाली जो साक्षी सत्ता है उसकी ओर वृत्ति रखना ही चित्त के स्थित करने का परम उपाय है । सन्तों के संग और शास्त्रों से निर्णय किये अर्थ का जब अभ्यास हो तब चित्त नष्ट हो और जो अभ्यास न हो तो भी सन्तों का संग और सत्‌शास्त्रों को सुन कर बल कीजिये तो सहज ही चमत्कार हो आवेगा मन को मन से मथिये तो ज्ञानरूपी अग्नि निकलेगी जो आशारूपी फाँसी को जला डालेगी । जबतक चित्त आत्मपद से विमुख है तबतक संसारभ्रम देखता है पर जब आत्मपद में स्थित होता है तब सब क्षोभ मिट जाते हैं । जब तुमको आत्मपद का साक्षात्कार होगा तब कालकूट विष भी अमृत समान हो जावेगा और विष का जो मारना धर्म है सो न रहेगा । जीव जब अपने स्वभाव में स्थित होता है तब संसार का कारण मोह मिट जाता है और जब निर्मल निरंश आत्मसंवित् से गिरता है तब संसार का कारण मोह आन प्राप्त होता है । जब निरंश निर्मल आत्मसंवित् में स्थित होता है तब संसारसमुद्र से तर जाता है । जितने तेजस्वी बलवान् हैं उन सबों से तत्त्ववेत्ता उत्तम हैं, उसके आगे सब लघु हो जाते हैं और उस पुरुष को संसार के किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि उसका चित्त सत्यपद को प्राप्त होता है । इससे चित्त को स्थित करो तब वर्तमानकाल भी भविष्यत्काल की नाईं हो जावेगा और जैसे भविष्यत्काल का रागद्वेष नहीं स्पर्श करता तैसे ही वर्तमान काल का रागद्वेष भी स्पर्श न करेगा । हे रामजी! आत्मा परम आनन्दरूप है, उसके पाने से विष भी अमृत के समान हो जाता है । जिस पुरुष को आत्मपद में स्थित हुई है वह सबसे उत्तम है जैसे सुमेरु पर्वत के निकट हाथी तुच्छ भासता है तैसे ही उसके निकट त्रिलोकी के पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं । निकट त्रिलोकी के पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं वह ऐसे दिव्य तेज को प्राप्त होता है जिसको सूर्य भी नहीं प्रकाश कर सकता । वह परम प्रकाश रूप सब कलना से रहित अद्वैत तत्त्व है । हे रामजी! उस आत्मतत्त्व में स्थित हो रहो । जिस पुरुष ने ऐसे स्वरूप को पाया है उसने सब कुछ पाया है और जिसने ऐसे स्वरूप को नहीं पाया उसने कुछ नहीं पाया । ज्ञानवान् को देखकर हमको ज्ञान की वार्ता करते कुछ लज्जा नहीं आती और जो उस ज्ञान से विमुख है यद्यपि वह महाबाहु हो तो भी गर्दभवत् है । जो बड़े ऐश्वर्य से सम्पन्न है और आत्मपद से विमुख है उसको तू विष्ठा के कीट से भी नीच जान । जीना उनका श्रेष्ठ है जो आत्मपद के निमित्त यत्न करते हैं और जीना उनका वृथा है जो संसार के निमित्त यत्न करते हैं । वे देखनेमात्र तो चेतन हैं परन्तु शव की नाईं हैं । जो तत्त्ववेत्ता हुए हैं वे अपने प्रकाश से प्रकाशते हैं और जिनको शरीर में अभिमान है वे मृतक समान हैं । हे रामजी! इस जीव को चित्त ने दीन किया है । ज्यों ज्यों चित्त बड़ा होता है त्यों त्यों इसको दुःख होता है और जिसका चित्त क्षीण हुआ है उसका कल्याण हुआ है । जब आत्मभाव अनात्म में दृढ़ होता है और भोगों की तृष्णा होती है तब चित्त बड़ा हो जाता है और आत्मपद से दूर पड़ता है । जैसे बड़े मेघ के आवरण से सूर्य नहीं भासता तैसे ही अनात्म अभिमान अभिमान से आत्मा नहीं भासता । जब भोगों की तृष्णा निवृत्त हो जाती है तब चित्त क्षीण हो जाता है । जैसे वसन्त ऋतु के गये से पत्र कृश हो जाते हैं तैसे ही भोग वासना के अभाव से चित्त कृश हो जाता है । हे रामजी! चित्तरूपी सर्प दुर्वासनारूपी दुर्गन्ध, भोगरूपी वायु और शरीरे में दृढ़ आस्थारूपी मृत्तिका स्थान से बड़ा हो जाता है, और उन पदार्थों से जब बड़ा हुआ तब मोहरूपी विष से जीव को मारता है । हे रामजी! ऐसे दुष्टरूपी सर्प को जब मारे तब कल्याण हो । देह में जो आत्म अभिमान हो गया है, भोगों की तृष्णा फुरती है और मोह रूपी विष चढ़ गया है, इससे यदि विचाररूपी गरुड़मन्त्र का चिन्तन करता रहे तो विष उतर जावे इसके सिवाय और उपाय विष उतरने का कोई नहीं । हे रामजी! अनात्मा में आत्माभिमान और पुत्र, दारा आदिक में ममत्व से चित्त बड़ा हो जाता है और अहंकाररूपी विकार, ममतारूपी कीड़ा और यह मेरा इत्यादि भावना से चित्त कठिन हो जाता है । चित्तरुपी विष का वृक्ष है जो देहरूपी भूमि पर लगा है, संकल्प विकल्प इसके टास हैं, दुर्वासनारूपी पत्र हैं और सुखदुःख आधिव्याधि मृत्युरूपी इसके फल हैं, अहंकाररूपी कर्म जल है उसके सींचने से बढ़ता है और काम भोग आदि पुष्प हैं। चिन्तारूपी बड़ी बेलि को जब विचार और वैराग्यरूपी कुठार से काटे तब शान्ति हो- अन्यथा शांति न होगी । हे रामजी! चित्तरूपी एक हाथी है उसने शरीररूपी तालाब में स्थित होकर शुभ वासनारूपी जल को मलीन कर डाला है और धर्म, सन्तोष, वैराग्यरूपी कमल को तृष्णारूपी सूँड़ से तोड़ डाला है । उसको तुम आत्मविचाररूपी नेत्रों से देख नखों से छेदो । हे रामजी! जैसे कौवा अपवित्र पदार्थों को भोजन करके सर्वदा काँ काँ करता है तैसे ही चित्त देहरूपी अपवित्र गृह में बैठा सर्वदा भोगों की ओर धावता है, उसके रस को ग्रहण करता है और मौन कभी नहीं रहता । दुर्वासना से वह काक की नाईं कृष्णरूप है-जैसे काक के एक ही नेत्र होता है तैसे ही चित्त एक विषयों की ओर धावता है । ऐसे अमंगलरूपी कौवे को विचाररूपी धनुष से मारो तब सुखी होगे । चित्त रूपी चील पखेरु है जो भोगरूपी माँस के निमित्त सब ओर भ्रमता है । जहाँ अमंगलरूपी चील आती है वहाँ से विभूति का अभाव हो जाता है । वह अभिमानरूपी माँस की ओर ऊँची होकर देखती है और नम्र नहीं होती । ऐसा अमंगलरूपी चित्त चील है उसको जब नाश करो तब शान्तिमान् होगे । जैसे पिशाच जिसको लगता है वह खेदवान् होता है और शब्द करता है तैसे ही इसको चित्ररूपी पिशाच लगा है और तृष्णारूपी पिशाचिनी के साथ शब्द करता है उसको निकालो जो आत्मा से भिन्न अभिमान करता है । ऐसे चित्तरूपी पिशाच को वैराग्य रूपी मन्त्र से दूर करो तब स्वभावसत्ता को प्राप्त होगे । यह चित्तरूपी वानर महा चञ्चल है और सदा भटकता रहता है, कभी किसी पदार्थ में धावता है-जैसे वानर जिस वृक्ष पर बैठता है उसको ठहरने नहीं देता । हे रामजी! चित्तरूपी रस्सी से सम्पूर्ण जगत्‌ कर्ता, कर्म, क्रियारूपी गाँठ करके बँधा है । जैसे एक जंजीर के साथ अनेक बँधते हैं और एक तागे के साथ अनेक दाने पिरोये जाते हैं तैसे ही एक चित्त से सब देहधारी बाँधे हैं । उन रस्सी को असंग शस्त्र से काटे तब सुखी हो । रामजी! चित्तरूपी अजगर सर्प भोगों की तृष्णारूपी बिष से पूर्ण है और उसने फुँकार के साथ बड़े-बड़े लोक जलाये हैं और शम, दम, धैर्यरूपी सब कमल जल गये हैं । इस दुष्ट को और कोई नहीं मार सकता, जब विचाररूपी गरुड़ उपजे तब इसको नष्ट करे और जब चित्तरूपी सर्प नष्ट हो तब आत्मरूपी निधि प्राप्त होगी हे रामजी! यह चित्त शस्त्रों से काटा नहीं जाता, न अग्नि से जलता है और न किसी दूसरे उपाय से नाश होता है, केवल साधु के संग और सत्‌शास्त्रों के विचार और अभ्यास से नाश होता है । हे रामजी! यह चित्तरूपी गढ़े का मेघ बड़ा दुःखदायक है, भोगों की तृष्णारूपी बिजली इसमें चमकती है और जहाँ वर्षा इसकी होती है वहाँ बोधरूपी क्षेत्र और शमदमरूपी कमलों को नाश करती है । जब विचाररूपी मन्त्र हो तब शान्त हो । हे रामजी! चित्त की चपलता को असंकल्प से त्यागो । जैसे ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र छिदता है तैसे ही मन से मन को छेदो अर्थात् अन्तर्मुख हो । जब तेरा चित्तरुपी वानर स्थित होगा तब शरीररूपी वृक्ष क्षोभ से रहित होगा । शुद्ध बोध से मन को जीतो और यह जगत् जो तृण से भी तुच्छ है उससे पार हो जाओ । 

Saturday, October 23, 2010

वर्तमान को भी असत्य जानके उसमें बिचरो

  हे रामजी! जब अहं’ ‘त्वंआदि रात्रि विचाररूपी सूर्य से क्षीण हो जावेगी तब परमात्मा का प्रकाश साक्षात् होगा, भेदकल्पना नष्ट हो जावेगी और अनन्तब्रह्माण्ड में जो व्यापक आत्मतत्त्व है । वह प्रकाशित होगा । जैसे अपने विचार से जनक ने अहंकाररूपी वासना का त्याग किया है तैसे ही तुम भी विचार करके अहंकार-रूपी वासना का त्याग किया है तैसे ही तुम भी विचार करके अहंकाररूपी वासना का त्याग करो अहंकाररूपी मेघ जब नष्ट होगा और चित्ताकाश निर्मल होगा तब आत्मरूपी सूर्य प्रकाशित होगा । जब तक अहंकाररूपी मेघ आवरण है तबतक आत्मरूपी सूर्य नहीं भासता । विचाररूपी वायु से जब अहंकाररूपी मेघ नाश हो तब आत्मरूपी सूर्य प्रकट भासेगा । हे रामजी! ऐसे समझो कि मैं हूँ न कोई और है, न नास्ति है, न अस्ति है, जब ऐसी भावना दृढ़ होगी तब मन   शान्त हो जावेगा और हेयोपादेय बुद्धि जो इष्ट पदार्थों मे होती है उसमें न डूबोगे । इष्ट अनिष्ट के ग्रहण त्याग में जो भावना होती है यही मन का रूप है और यही बन्धन का कारण है- इससे भिन्न बन्धन कोई नहीं । इससे तुम इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट में हेयो पादेय बुद्धि मत करो और दोनों के त्यागने से जो शेष रहे उसमें स्थित हो । इष्ट अनिष्ट की भावना उसकी की जाती है जिसको हेयोपादेय बुद्धि नहीं होती और जबतक हेयो पादेय बुद्धि क्षीण नहीं होती तबतक समता भाव नहीं उपजता । जैसे मेघ के नष्ट हुए बिना चन्द्रमा की चाँदनी नहीं भासती तैसे ही जबतक पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि है और मन लोलुप होता है तबतक समता उदय नहीं होती । जबतक युक्त अयुक्त लाभ अलाभ इच्छा नहीं मिटती तबतक शुद्ध समता और निरसता नहीं उपजती । एक ब्रह्मतत्त्व जो निरामयरूप और नानात्व से रहित है उसमें युक्त क्या और अयुक्त क्या? जब तक इच्छा- अनिच्छा और वाञ्छित-अवाञ्छित यह दोनों बातें स्थित हैं अर्थात् फुरते और क्षोभ करते हैं तबतक सौम्यताभाव नहीं होता । जो हेयोपादेय बुद्धि से रहित ज्ञानवान् है उस पुरुष को यह शक्ति आ प्राप्त होती है-जैसे राजा के अन्तःपुर में पटु (चतुर) रानी स्थित होती हैं । वह शक्ति यह है, भोगों में निरसता, देहाभिमान से रहित निर्भयता, नित्यता, समता, पूर्णआत्मा-दृष्टि, ज्ञाननिष्ठा, निरिच्छता, निरहंकारता आपको सदा अकर्त्ता जानना, इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता, निर्विकल्पता, सदा आनन्द- स्वरूप रहना, धैर्य से सदा एकरस रहना, स्वरूप से भिन्न वृत्ति न फुरना, सब जीवों से मैत्रीभाव, सत्यबुद्धि, निश्चयात्मकरूप से तुष्टता, मुदिता और मृदुभाषणा,इतनी शक्ति हेयोपादेय से रहित पुरुष को आ प्राप्त होती है । हे रामजी! संसार के पदार्थों की ओर जो चित्त धावता है उसको वैराग्य से उलटाके खैंचना-जैसे पुल से जल के वेग का निवारण होता है तैसे ही जगत् से रोककर मन को आत्मपद में लगाने से आत्मभाव प्रकाशता है । इससे हृदय से सब वासना का त्याग करो और बाहर से सब क्रिया में रहो । वेग चलो, श्वास लो और सर्वदा, सब प्रकार चेष्टा करो, पर सर्वदा सब प्रकार की वासना त्याग करो । संसाररूपी समुद्र में वासनारूपी जल है और चिन्तारूपी सिवार है, उस जल में तृष्णावान् रूपी मच्छ फँसे हैं । यह विचार जो तुमसे कहा है उस विचाररूपी शिला से बुद्धि को तीक्ष्ण करो और इस जाल को छेदो तब संसार से मुक्त होगे संसाररूपी वृक्ष का मूल बीज मन है । ये वचन जो कहे हैं-उनको हृदय में धरकर धैर्यवान हो तब आधि व्याधिदुःखों से मुक्त होगे । मन से मन को छेदो, जो बीती है उसका स्मरण न करो और भविष्यत् की चिन्ता न करो, क्योंकि वह असत्यरूप है और वर्तमान को भी असत्य जानके उसमें बिचरो । जब मन से संसार का विस्मरण होता है तब मन में फिर न फुरेगा । मन असत्यभाव जानके चलो, बैठो, श्वाश लो, निश्वास करो, उछलो, सोवो, सब चेष्टा करो परन्तु भीतर सब असत्यरूप जानो तब खेद न होगा । अहं’ ‘ममरूपी मल का त्याग करो प्राप्ति में बिचरो अथवा राज आ प्राप्त हो उसमें बिचरो परन्तु भीतर से इसमें आस्था न हो । जैसे आकाश का सब पदार्थों में अन्वय है परन्तु किसी से स्पर्श नहीं करता, तै से ही बाहर कार्य करो परन्तु मन से किसी में बन्धायमान न हो तुम चेतनरूप अजन्मा महेश्वर पुरुष हो, तुम से भिन्न कुछ नहीं और सबमें व्याप रहे हो । जिस पुरुष को सदा यही निश्चय रहता है उसको संसार के पदार्थों चलायमान नहीं कर सकते और जिनको संसार में आसक्त भावना है और स्वरूप भूले हैं उनको संसार के पदार्थों से विकार उपजता है और हर्ष, शोक और भय खींचते हैं, उससे वे बाँधे हुए हैं । जो ज्ञानवान् पुरुष राग द्वेष से रहित हैं उनको लोहा, बट्टा, (ढेला) पाषाण और सुवर्ण सब एक समान है । संसार वासना के ही त्यागने का नाम मुक्ति है । 

Friday, October 22, 2010

सत्य क्या है और असत्य क्या है?

हे सुन्दरमूर्ते, रामजी!  यह संसार महादीर्घ रूप है और जैसे दृढ़थम्भ के आश्रय गृह होता है तैसे ही राजसी जीवों का आश्रय संसार मायारूप है । तुम सरीखे जो सात्त्विक में स्थित हैं वे शूरमे हैं, जो वैराग, विवेक आदिक गुणों से सम्पन्न हैं वे लीला करके यत्न बिना ही संसार माया को त्याग देते हैं औष जो बुद्धि मान् सात्त्विक जागे हुए हैं और जो राजस और सात्त्विक हैं वे भी उत्तम पुरुष हैं । वे पुरुष जगत् के पूर्व अपूर्व को विचारते हैं । जो सन्तजन और सत्‌शास्त्रों का संग करता है उसके आचरणपूर्वक वे बिचरते हैं और उससे ईश्वर परमात्मा के देखने की उन्हें बुद्धि उपजती है और दीपकवत् ज्ञानप्रकाश उपजता है । हे रामजी! जब तक मनुष्य अपने विचार से अपना स्वरूप नहीं पहिचानता तब तक उसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता । जो उत्तम कुल, निष्पाप, सात्त्विक-राजसी जीव हैं उन्हीं को विचार उपजता है और उस विचार से वे अपने आपसे आपको पाते हैं । वे दीर्घदर्शी संसार के जो नाना प्रकार के आरम्भ हैं उनको बिचारते हैं और बिचार द्वारा आत्मपद पाते हैं और परमानन्द सुख में प्राप्त होते हैं । इससे तुम इसी को विचारो कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? ऐसे विचार से असत्य का त्याग करो और सत्य का आश्रय करो । जो पदार्थ आदि में न हो और अन्त में भी न रहे उसे मध्य में भी असत्य जानिये । जो आदि, अन्त एकरस है उसको सत्य जानिये और जो आदि अन्त में नाशरूप है उसमें जिसको प्रीति है और उसके राग से जो रञ्जित है वह मूढ़ पशु है, उसको विवेक का रंग नहीं लगता । 

Saturday, October 9, 2010

जो कुछ संपदा है वह आपदा का मूल है

हे मुनीश्वर! जितने कुछ पदार्थ हैं वह सब मन से उत्पन्न होते हैं सो मन ही भ्रममात्र है अनहोता मन दुःखदायी हुआ है । मन जो पदार्थों को सत्य जानकर दौड़ता है और सुखदायक जानता है सो मृगतृष्णा के जलवत् है । जैसे मृगतृष्णा के जल को देखकर मृग दौड़ते हैं और दौड़ते-दौड़ते थक कर गिर पड़ते हैं तो भी उनको जल प्राप्त नहीं होता वैसे ही मूर्ख जीव पदार्थों को सुखदायी जानकर भोगने का यत्न करते हैं और शान्ति नहीं पाते । हे मुनीश्वर! इन्द्रियों के भोग सर्पवत् है जिनका मारा हुआ जन्म मरण और जन्म से जन्मान्तर पाता है । भोग और जगत् सब भ्रममात्र हैं उनमें जो आस्था करते हैं वह महामूर्ख हैं मैं विचार करके ऐसा जानता हूँ कि सब आगमापायी है अर्थात् आते भी हैं और जाते भी हैं । इससे जिस पदार्थ का नाश न हो वही पदार्थ पाने योग्य है इसी कारण मैंने भोगों को त्याग दिया है । हे मुनीश्वर! जितने सम्पदारूप पदार्थ भासते हैं वह सब आपदा हैं; इनमें रञ्चक भी सुख नहीं । जब इनका वियोग होता है तब कण्टक की नाई मन में चुभते हैं । जब इन्द्रियों को भोग प्राप्त होते हैं तब जीव राग द्वेष से जलता है और जब नहीं प्राप्त होते तब तृष्णा से जलता है--इससे भोग दुःखरूप ही है । जैसे पत्थर की शिला में छिद्र नहीं होता वैसे ही भोगरूपी दुःख की शिला में सुखरूप छिद्र नहीं होता । हे मुनीश्वर! मैं विषय की तृष्णा में बहुत काल से जलता रहा हूँ । जैसे हरे वृक्ष के छिद्र में अग्नि धरी हो तो धुँवा हो थोड़ा थोड़ा जलता रहता है वैसे ही भोगरूपी अग्नि से मन जलता रहता है । विषयों में कुछ भी सुख नहीं है दुःख बहुत हैं, इससे इनकी इच्छा करनी मूर्खता है । जैसे खाईं के उपर तृण और पात होते हैं और उससे खाईं आच्छादित हो जाती है उसको देख हरिण कूदकर दुःख पाता है वैसे ही मूर्ख भोग को सुखरूप जानकर भोगने की इच्छा करता है और जब भोगता है तब जन्म से जन्मान्तररूपी खाईं में जा पड़ता है और दुःख पाता है । हे मुनीश्वर! भोगरूपी चोर अज्ञानरूपी रात्रिमें आत्मा रूपी धन लूट ले जाता है, पर उसके वियोग से महादीन रहता है । जिस भोग के निमित्त यह यत्न करता है वह दुखरूप है । उससे शान्ति प्राप्त नहीं होती और जिस शरीर का अभिमान करके यह यत्न करता है वह शरीर क्षणभंगुर और असार है । जिस पुरुष को सदा भोग की इच्छा रहती है वह मूर्ख और जड़ है । उसका बोलना और चलना भी ऐसा है जैसे सूखे बाँस के छिद्र में पवन जाता है और उसके वेग से शब्द होता है । जैसे थका हुआ मनुष्य मारवाड़ के मार्ग की इच्छा नहीं करता वैसे ही दुःख जानकर मैं भोग की इच्छा नहीं करता । लक्ष्मी भी परम अनर्थकारी है जब तक इसकी प्राप्ति नहीं होती तब तक उसके पाने का यत्न होता है और यह अनर्थ करके प्राप्त होती है । जब लक्ष्मी प्राप्त हुई तब सब सद्गुण अर्थात् शीलता, सन्तोष, धर्म, उदारता, कोमलता, वैराग्य विचार दयादिक का नाश कर देती है । जब ऐसे गुणों का नाश हुआ तब सुख कहाँ से हो, तब तो परम आपदा ही प्राप्त होती है । इसको परमदुःख का कारण जानकर मैंने त्याग दिया है । हे मुनीश्वर! इस जीव में गुण तबतक हैं जब तक लक्ष्मी नहीं प्राप्त हुई । जब लक्ष्मी की प्राप्ति हुई तब सब गुण नष्ट हो जाते हैं । जैसे बसन्त ऋतु की मञ्जरी तब तक हरी रहती है जब तक ज्येष्ठ आषाढ़ नहीं आता और जब ज्येष्ठ आषाढ़ आया तब मञ्जरी जल जाती है वैसे ही जब लक्ष्मी की प्राप्ति हुई तब शुभ गुण जल जाते हैं । मधुर वचन तभी तक बोलता है जब तक लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं है और जब लक्ष्मी की प्राप्ति हुई तब कोमलता का अभाव होकर कठोर हो जाता है । जैसे जल पतला तब तक रहता है जब तक शीतलता का संयोग नहीं हुआ और जब शीतलता का संयोग होता है तब बरफ होकर कठोर दुःखदायक हो जाता है; वैसे यह जीव लक्ष्मी से जड़ हो जाता है । हे मुनीश्वर! जो कुछ संपदा है वह आपदा का मूल है, क्योंकि जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब बड़े-बड़े सुख भोगता है और जब उसका अभाव होता है तब तृष्णा से जलता है और जन्म से जन्मान्तर पाता है । लक्ष्मी की इच्छा करना ही मूर्खता है । यह तप क्षणभंगुर है, इससे भोग उपजते और नष्ट होते हैं । जैसे जल से तरंग उपजते और मिट जाते हैं और जैसे बिजली स्थिर नहीं होती वैसे ही भोग भी स्थिर नहीं रहते । पुरुष में शुभ गुण तब तक हैं जब तक तृष्णा का स्पर्श नहीं और जब तृष्णाहुई तब गुणों का अभाव हो जाता है । जैसे दूध में मधुरता तब तक है जब तक उसे सर्प ने स्पर्श नहीं किया और सर्प ने स्पर्श किया तब वही दूध विषरूप हो जाता है ।

Thursday, September 30, 2010

सब अनर्थों का कारण वासना ही है

हे शिष्य! संसार भ्रममात्र सिद्ध है । इसको भ्रममात्र जानकर विस्मरण करना यही मुक्ति है । जीव के बन्धन का कारण वासना है और वासना से ही भटकता फिरता है । जब वासना का क्षय हो जाय तब परमपद की प्राप्ति हो! वासना का एक पुतला है उसका नाम मन है । जैसे जल सरदी की दृढ़ जड़ता पाकर बरफ हो जाता है और फिर सूर्य के ताप से पिघल कर जल होता है तो केवल शुद्ध ही रहता है वैसे ही आत्मा रूपी जल है उसमें संसार की सत्यतारूपी जड़ता शीतलता है और उससे मन रूपी बरफ का पुतला हुआ है । जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होगा तब संसार की सत्यतारूपी जड़ता और शीतलता निवृत्त हो जावेगी । जब संसार की सत्यता और वासना निवृत्त हुई तब मन नष्ट हो जावेगा और जब मन नष्ट हुआ तो परम कल्याण हुआ । इससे इसके बन्धन का कारण वासना ही है और वासना के क्षय होने से मुक्ति है । वह वासना दो प्रकार की है- एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । अशुद्धवासना से अपने वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से अनात्मा को देहादिक हैं उनमें अहंकार करता है और जब अनात्म में आत्म अभिमान हुआ, तब नाना प्रकार की वासना उपजती हैं जिससे घटीयंत्र की नाईं भ्रमता रहता है । हे साधो! यह जो पञ्चभूत का शरीर तुम देखते हो सो सब वासनारूप है और वासना से ही खड़ा है । जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुँथे होते हैं और जब धागा टूट जाता है तब न्यारे न्यारे हो जाते हैं और नहीं ठहरते वैसे ही वासना के क्षय होने पर पञ्चभूत का शरीर नहीं रहता । इससे सब अनर्थों का कारण वासना ही है । शुद्ध वासना में जगत् का अत्यन्त अभाव निश्चय होता है । हे शिष्य! अज्ञानी की वासना जन्म का कारण होती है और ज्ञानी की वासना जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कच्चा बीज उगता है और जो दग्ध हुआ है सो फिर नहीं उगता वैसे ही अज्ञानी की वासना रससहित है इससे जन्म का कारण है और ज्ञानी की वासना रसरहित है वह जन्म का कारण नहीं । ज्ञानी की चेष्टा स्वाभाविक होती है । वह किसी गुण से मिलकर अपने में चेष्टा नहीं देखता । वह खाता, पीता, लेता, देता, बोलता चलता एवम् और अन्य व्यवहार करता है पर अन्तःकरण में सदा अद्वैत निश्चय को धरता है कदाचित् द्वैतभावना उसको नहीं फुरती । वह अपने स्वभाव में स्थित है इससे उसकी चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कुम्हार के चक्र को जब तक घुमावे तब तक फिरता है और जब घुमाना छोड़ दे तब स्थीयमान गति से उतरते उतरते स्थिर रह जाता है वैसे ही जब तक अहंकार सहित वासना होती है तब तक जन्म पाता है और जब अहंकार से रहित हुआ तब फिर जन्म नहीं पाता । हे साधो! इस अज्ञानरूपी वासना के नाश करने को एक ब्रह्मविद्या ही श्रेष्ठ उपाय है जो मोक्ष उपायक शास्त्र है । यदि इसको त्याग कर और शास्त्ररूपी गर्त्त में गिरेगा तो कल्पपर्यन्त भी अकृत्रिम पद को न पावेगा । जो ब्रह्मविद्या का आश्रय करेगा वह सुख से आत्मपद को प्राप्त होगा हे भारद्वाज! यह मोक्ष उपाय रामजी और वशिष्ठजी का संवाद है, यह विचारने योग्य है और बोध का परम कारण है ।

Thursday, September 23, 2010

स्वर्ग में गुण और दोष

हे राजन्! स्वर्ग में बड़े-बड़े दिव्य भोग हैं । जीव बड़े पुण्य से स्वर्ग को पाता है । जो बड़े पुण्यवाले होते हैं वे स्वर्ग के उत्तम सुख को पाते हैं; जो मध्यम पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के मध्यम सुख को पाते हैं और जो कनिष्ठ पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के कनिष्ठ सुख को पाते हैं । जो गुण स्वर्ग में हैं वे तो तुमसे कहे, अब स्वर्ग के जो दोष हैं वे भी सुनो । हे राजन्! जो आपसे ऊँचे बैठे दृष्ट आते हैं और उत्तम सुख भोगते हैं उनको देखकर ताप की उत्पत्ति होती है क्योंकि उनकी उत्कृष्टता सही नहीं जाती । जो कोई अपने समान सुख भोगते हैं उनको देखकर क्रोध उपजता है कि ये मेरे समान क्यों बैठे है और जो आपसे नीचे बैठे हैं उनको देखकर अभिमान उपजता है कि मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ । एक और भी दोष है कि जब पुण्य क्षीण होते हैं तब जीव को उसी काल में मृत्युलोक में गिरा देते हैं, एक क्षण भी नहीं रहने देते । यही स्वर्ग में गुण और दोष हैं ।

Wednesday, September 8, 2010

पुरुषार्थ परम दैव है.....

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जीवन्मुक्ति और विदेह-मुक्ति में कुछ भेद नहीं है । जैसे जल स्थिर हैं तो भी जल है और तरंग है तो भी जल है वैसे ही जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कुछ भेद नहीं है । हे रामजी! जीवन्‌मुक्ति और विदेहमुक्ति का अनु भव तुमको प्रत्यक्ष नहीं भासता, क्योंकि स्वसंवेद है और उनमें जो भेद भासता है सो सम्यकदर्शी को भासता है ज्ञानवान् को भेद नहीं भासता । हे मननकर्त्ताओं में श्रेष्ठ रामजी! जैसे वायु स्पन्दरूप होती है तो भी वायु है और निस्स्पन्द होती है तो भी वायु है, निश्चय करके कुछ भेद नहीं पर और जीव को स्पन्द होती है तो भासती और निस्स्पन्द होती है तो नहीं भासती वैसे ही ज्ञानवान् पुरुष को जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति में कुछ भेद नहीं, वह सदा अद्वैत निश्चयवाला और इच्छा से रहित है । जब जीव को उसका शरीर भासता है तब जीवन्मुक्ति कहते हैं और जब शरीर अदृश्य होता है तब विदेह मुक्ति कहते हैं । पर उसको दोनों तुल्य है । हे रामजी! अब प्रकृत प्रसंग को जो श्रवण का भूषण है सुनिये । जो कुछ सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से सिद्ध होता है । पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता । लोग जो कहते हैं कि दैव करेगा सो होगा यह मूर्खता है । चन्द्रमा जो हृदय को शीतल और उल्लासकर्ता भासता है इसमें यह शीतलता पुरुषार्थ से हुई है । हे रामजी! जिस अर्थ की प्रार्थना और यत्न करे और उससे फिरे नहीं तो अवश्य पाता है । पुरुष प्रयत्न किसका नाम है सो सुनिये । सन्तजन और सत्य शास्त्र के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ (प्रयत्न) है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है । जिस निमित्त यत्न करता है सोई पाता है । एक जीव पुरुषार्थ (प्रयत्न) करके इन्द्र की पदवी पाकर त्रिलोकी का पति हो सिंहासन पर आरूढ़ हुआ है । हे रामचन्द्र! आत्मतत्त्व में जो चैतन्य संवित है सो संवेदन रूप होकर फुरती है और सोई अपने पुरुषार्थ से ब्रह्म पद को प्राप्त हुई है । इसलिए देखो जिसको कुछ सिद्धता प्राप्त हुई है सो अपने पुरुषार्थ से ही हुई है । केवल चैतन्य आत्मतत्व है । उसमें चित्त संवेदन स्पन्दरूप है । यह चित्त संवेदन ही अपने पुरुषार्थ से गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुरूपी होता है और पुरुषोत्तम कहाता है और यही चित्तसंवेदन अपने पुरुषार्थ से रुद्ररूप हो अर्द्धांग में पार्वती , मस्तक में चन्द्रमा और नीलकण्ठ परमशान्तिरूप को धारण करता है इससे जो कुछ सिद्ध होता है सो पुरुषार्थ से ही होता है । हे रामजी! पुरुषार्थ से सुमेरु का चूर्ण किया चाहे तो भी वह भी कर सकता है । यदि पूर्व दिन में दुष्कृत किया हो और अगले दिन में सुकृत करे तो दुष्कृत दूर हो जाता है । जो अपने हाथ से चरणामृत भी ले नहीं सकता वह यदि पुरुषार्थ करे तो वह पृथ्वी को खण्ड खण्ड करने को समर्थ होता है ।

Tuesday, September 7, 2010

ब्रह्मः अनन्त शक्तियों का पुंज


पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू

स्पन्दनशक्ति के अलावा और अनेकानेक शक्तियाँ ब्रह्म में समाविष्ट हैं। ब्रह्म ही अनेक शक्तियों का पुंज है। ब्रह्म ही अपनी शक्तियों को जहां चाहे, प्रकट कर सकता है।
 
श्रीयोगवाशिष्ठ रामायण में कहा हैः
सर्वशक्तिमयो आत्मा। आत्मा (परमात्मा) सब शक्तियों से युक्त है। वह जिस शक्ति की भावना जहां करे, वहीं अपने संकल्प द्बारा उसे प्रकट हुआ देखता है।
 
सर्वशक्ति हि भगवानयैव तस्मै हि रोचते।
 
भगवान ही सब प्रकार की शक्तियों वाला तथा सब जगह वर्तमान है। वह जहां चाहे अपनी शक्ति को प्रकट कर सकता है। वास्तव में नित्य, पूर्ण और अक्षय ब्रह्म में ही समस्त शक्तियाँ मौजूद हैं। संसार में कोई वस्तु ऐसी है ही नहीं जो सर्वरूप से प्रतिष्ठित ब्रह्म में मौजूद न हो। शांत आत्मा, ब्रह्म में ज्ञान शक्ति, क्रियाशक्ति आदि अनेकानेक शक्तियाँ वर्त्तमान हैं ही। ब्रह्म की चेतनाशक्ति शरीरधारी जीवों में दिखाई देती है तो उसकी स्पन्दनशक्ति, जिसे क्रियाशक्ति भी कहते हैं, हवा में दिखती है। उसी शक्तिरूप ब्रह्म की जड़शक्ति पत्थर में है तो द्रवशक्ति (बहने की शक्ति) जल में दिखती है। चमकने की शक्ति का दर्शन हम आग में कर सकते हैं। शून्यशक्ति आकाश में, सब कुछ होने की भवशक्ति संसार की स्थिति में, सबको धारण करने की शक्ति दशों दिशाओं में, नाशशक्ति नाशों में, शोकशक्ति शोक करने वालों में, आनन्दशक्ति प्रसन्नचित्त वालों में, वीर्यशक्ति योध्दाओं में, सृष्टि करने की शक्ति सृष्टि में देख सकते हैं। कल्प के अन्त में सारी शक्तियाँ स्वयं ब्रह्म में रहती हैं।
 
परमेश्वर की स्वाभाविक स्पन्दनशक्ति प्रकृति कहलाती है। वही जगन्माया नाम से भी प्रसिध्द है। यह स्पन्दनशक्तिरूपी भगनान की इच्छा इस दृश्य जगत की रचना करती है। जब शुध्द संवित में जड़शक्ति का उदय हुआ तो संसार की विचित्रता उत्पन्न हुई। जैसे चेतन मकड़ी से जड़ जाले की उत्पत्ति हुई वैसे ही चेतन ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई। ब्रह्मानन्दस्वरूप आत्मा ही भाव की दृढ़ता से मिथ्यारूप में प्रकट हो रहा है।
 
प्रकृति के तीन प्रकार हैं- सूक्ष्म, मध्यम और स्थूल। तीनों अवस्थाओं में प्रकृति स्थित रहती है। इसी कारण प्रकृति भी तीन प्रकार की कहलाई। इसके भी तीन भेद हुए- सत्त्व, रज, तम। त्रिगुणात्मक प्रकृति को अविद्या भी कहते हैं। इसी अविद्या से प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सारा जगत अविद्या के आश्रयगत है। इससे परे परब्रह्म है। जैसे फूल और उसकी सुगन्ध, धातु और आभूषण, अग्नि और उसकी ऊष्णता एकरूप है वैसे ही चित्त और स्पन्दनशक्ति एक ही है। मनोमयी स्पन्दनशक्ति उस ब्रह्म से भिन्न हो ही नहीं सकती। जब चितिशक्ति क्रिया से निवृत्त होकर अपने अधिष्टान की ओर यानी ब्रह्म में लौट आती है और वहीं शांत भाव से स्थित रहती है तो उसी अवस्था को शांत ब्रह्म कहते हैं। जैसे सोना किसी आकार के बिना नहीं रहता वैसे ही परब्रह्म भी चेतनता के बिना, जो कि उसकी स्वभान है, स्थित नहीं रहता. जैसे तिक्तता के बिना मिर्च, मधुरता के बिना गन्ने का रस नहीं रहता वैसे चित्त की चेतनता स्पन्दन के बिना नहीं रहती।
 
प्रकृति से परे स्थित पुरूष सदा ही शरद ऋतु के आकाश की तरह स्वच्छ, शांत व शिवरूप है। भ्रमरूपवाली प्रकृति परमेश्वर की इच्छारूपी स्पन्दनात्मक शक्ति है। वह तभी तक संसार में भ्रमण करती है कि जब तक वह नित्य तृप्त और निर्विकार शिव का दर्शन नही करती। जैसे नदी समुद्र में पड़ कर अपना रूप छोड़कर समुद्र ही बन जाती है वैसे ही प्रकृति पुरूष को प्राप्त करके पुरूषरूप हो जाती है, चित्त के शांत हो जाने पर परमपद को पाकर तद्रूप हो जाती है।
 
जिससे जगत के सब पदार्थों की उत्पत्ति होती है, जिसमें सब पदार्थ स्थित रहते हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, जो सब जगह, सब कालों में और सब वस्तुओं में मौजूद रहता है उस परम तत्त्व को ब्रह्म कहते हैं।
 
यत: सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च।
यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नम:।।
ज्ञाता ज्ञानं तथाज्ञेयं द्रष्टादर्शनदृश्यभू:।
कर्ता हेतु: क्रिया यस्मात्तस्मै ज्ञत्यात्मने नम:।।
स्फुरन्तिसीकरा यस्मादानन्दरस्याम्बरेsवनौ।
सर्वेषां जीवनं तस्मै ब्रह्मानन्दात्मने नम:।।
 
( श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण: १.१.१-२-३ )
 
जिससे सब प्राणी प्रकट होते हैं, जिसमें सब स्थित हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, उस सत्यरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
जिससे ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय का दृष्टा-दर्शन-दृश्य का तथा कर्त्ता, हेतु और क्रिया का उदय होता है उस ज्ञानस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
जिससे पृथ्वी और स्वर्ग में आनंन्द की वर्षा होती है और जिससे सब का जीवन है उस ब्रह्मानंदस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
 
ब्रह्म केवल उसको जाननेवाले के अनुभव में ही आ सकता है, उसका वर्णन नहीं हो सकता। वह अवाच्य, अनभिव्यक्त और इन्द्रियों से परे है। ब्रह्म का ज्ञान केवल अपने अनुभव द्वारा ही होता है। वह परम पराकाष्ठास्वरूप है। वह सब दृष्टियों की सर्वोत्तम दृष्टि है। वह सब महिमाओं की महिमा है। वह सब प्राणिरूपी मोतियों का तागा है जो कि उनके हृदयरूपी छेदों में पिरोया हुआ है। वह सब प्राणिरूपी मिर्चों की तीक्षणता है। वह पदार्थ का पदार्थतत्त्व है। वह सर्वोत्तम तत्त्व है।
उस परमेश्ववर तत्त्व को प्राप्त करना, उसी सर्वेश्वर में स्थिति करना-यही मानव जीवन की सार्थकता है

Wednesday, September 1, 2010

तीर्थयात्रावर्णन

भारद्वाज ने पूछा हे भगवान्! जीवन्मुक्त की स्थिति कैसी है और रामजी कैसे जीवन्मुक्त हुए हैं वह आदि से अन्तपर्यन्त सब कहो? वाल्मीकिजी बोले, हे पुत्र! यह जगत् जो भासता है सो वास्तविक कुछ नहीं उत्पन्न हुआ; अविचार करके भासता है और विचार करने से निवृत्त हो जाता है । जैसे आकाश में नीलता भासती है सो भ्रम से वैसे ही है यदि विचार करके देखिए तो नीलता की प्रतीति दूर हो जाती है वैसे ही अविचार से जगत भासता है और विचार से लीन हो जाता है । हे शिष्य! जब तक सृष्टि का अत्यन्त अभाव नहीं होता तब तक परमपद की प्राप्ति नहीं होती । जब दृश्य का अत्यन्त अभाव हो जावे तब शुद्ध चिदाकाश आत्मसत्ता भासेगी । कोई इस दृश्य का महाप्रलय में अभाव कहते हैं परन्तु मैं तुमको तीनों कालों का अभाव कहता हूँ । जब इस शास्त्र को श्रद्धासंयुक्त आदि से अन्त तक सुनकर धारण करे भ्रान्ति निवृत्ति हो जावे और अव्याकृत पद की प्राप्ति हो । हे शिष्य! संसार भ्रममात्र सिद्ध है । इसको भ्रममात्र जानकर विस्मरण करना यही मुक्ति है । जीव के बन्धन का कारण वासना है और वासना से ही भटकता फिरता है । जब वासना का क्षय हो जाय तब परमपद की प्राप्ति हो! वासना का एक पुतला है उसका नाम मन है । जैसे जल सरदी की दृढ़ जड़ता पाकर बरफ हो जाता है और फिर सूर्य के ताप से पिघल कर जल होता है तो केवल शुद्ध ही रहता है वैसे ही आत्मा रूपी जल है उसमें संसार की सत्यतारूपी जड़ता शीतलता है और उससे मन रूपी बरफ का पुतला हुआ है । जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होगा तब संसार की सत्यतारूपी जड़ता और शीतलता निवृत्त हो जावेगी । जब संसार की सत्यता और वासना निवृत्त हुई तब मन नष्ट हो जावेगा और जब मन नष्ट हुआ तो परम कल्याण हुआ । इससे इसके बन्धन का कारण वासना ही है और वासना के क्षय होने से मुक्ति है । वह वासना दो प्रकार की है- एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । अशुद्धवासना से अपने वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से अनात्मा को देहादिक हैं उनमें अहंकार करता है और जब अनात्म में आत्म अभिमान हुआ, तब नाना प्रकार की वासना उपजती हैं जिससे घटीयंत्र की नाईं भ्रमता रहता है । हे साधो! यह जो पञ्चभूत का शरीर तुम देखते हो सो सब वासनारूप है और वासना से ही खड़ा है । जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुँथे होते हैं और जब धागा टूट जाता है तब न्यारे न्यारे हो जाते हैं और नहीं ठहरते वैसे ही वासना के क्षय होने पर पञ्चभूत का शरीर नहीं रहता । इससे सब अनर्थों का कारण वासना ही है । शुद्ध वासना में जगत् का अत्यन्त अभाव निश्चय होता है । हे शिष्य! अज्ञानी की वासना जन्म का कारण होती है और ज्ञानी की वासना जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कच्चा बीज उगता है और जो दग्ध हुआ है सो फिर नहीं उगता वैसे ही अज्ञानी की वासना रससहित है इससे जन्म का कारण है और ज्ञानी की वासना रसरहित है वह जन्म का कारण नहीं । ज्ञानी की चेष्टा स्वाभाविक होती है । वह किसी गुण से मिलकर अपने में चेष्टा नहीं देखता । वह खाता, पीता, लेता, देता, बोलता चलता एवम् और अन्य व्यवहार करता है पर अन्तःकरण में सदा अद्वैत निश्चय को धरता है कदाचित् द्वैतभावना उसको नहीं फुरती । वह अपने स्वभाव में स्थित है इससे उसकी चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कुम्हार के चक्र को जब तक घुमावे तब तक फिरता है और जब घुमाना छोड़ दे तब स्थीयमान गति से उतरते उतरते स्थिर रह जाता है वैसे ही जब तक अहंकार सहित वासना होती है तब तक जन्म पाता है और जब अहंकार से रहित हुआ तब फिर जन्म नहीं पाता । हे साधो! इस अज्ञानरूपी वासना के नाश करने को एक ब्रह्मविद्या ही श्रेष्ठ उपाय है जो मोक्ष उपायक शास्त्र है । यदि इसको त्याग कर और शास्त्ररूपी गर्त्त में गिरेगा तो कल्पपर्यन्त भी अकृत्रिम पद को न पावेगा । जो ब्रह्मविद्या का आश्रय करेगा वह सुख से आत्मपद को प्राप्त होगा । हे भारद्वाज! यह मोक्ष उपाय रामजी और वशिष्ठजी का संवाद है, यह विचारने योग्य है और बोध का परम कारण है । इसे आदि से अन्तपर्यन्त सुनो और जैसे रामजी जीवन्मुक्त हो विचरे हैं सो भी सुनो । एक दिन रामजी अध्ययनशाला से विद्या पढ़के अपने गृह में आये और सम्पूर्ण दिन विचारसहित व्यतीत किया । फिर मन में तीर्थ ठाकुरद्वारे का संकल्प धरकर अपने पिता दशरथ के पास, जो अति प्रजापालक थे, आये और जैसे हंस सुन्दर कमल को ग्रहण करे वैसे ही उन्होंने उनका चरण पकड़ा । जैसे कमल के फूल के नीचे कोमल सरैयाँ होती हैं और उन तरैयों सहित कमल को हंस पकड़ता है वैसे ही दशरथजी की अँगुलियों को उन्होंने ग्रहण किया और बोले, हे पिता! मेरा चित्त तीर्थ और ठाकुरद्वारों के दर्शनों को चाहता है । आप आज्ञा कीजिये तो मैं दर्शन कर आऊँ । मैं तुम्हारा पुत्र हूँ । आगे मैंने कभी नहीं कहा यह प्रार्थना अब ही की है इससे यह वचन मेरा न फेरना, क्योंकि ऐसा त्रिलोकी में कोई नहीं है कि जिसका मनोरथ इस घर से सिद्ध न हुआ हो इससे मुझको भी कृपाकर आज्ञा दीजिये । इतना कह कर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जिस समय इस प्रकार रामजीने कहा तब वशिष्ठजी पास बैठे थे उन्होंने भी दशरथ से कहा, हे राजन् इनका चित्त उठा है रामजी को आज्ञा दो तीर्थ कर आवें और इनके साथ सेना, धन, मंत्री और ब्राह्मण भी दीजिये कि विधि पूर्वकदर्शन करें तब महाराज दशरथ ने शुभ मुहुर्त्त दिखाकर रामजी को आज्ञा दी । जब वे चलने लगे तो पिता और माता के चरणों में पड़े और सबको कण्ठ लगाकर रुदन करने लगे । इस प्रकार सबसे मिलकर लक्ष्मण आदि भाई, मन्त्री और वशिष्ठ आदि ब्राह्मण जो बिधि जाननेवाले थे बहुत सा धन और सेना साथ ली और दान पुण्य करते हुए गृह के बाहर निकले । उस समय वहाँ के लोगों और स्त्रियों ने रामजी के ऊपर फूलों और कलियों की माला की, जैसे बरफ बरसती है वैसी ही वर्षा की ओर रामजी की मूर्ति हृदय में धर ली । इसी प्रकार रामजी वहाँसे ब्राह्मणों और निर्धनों को दान देते गंगा, यमुना, सरस्वती आदि तीर्थों में विधिपूर्वक स्नानकर पृथ्वी के चारों ओर पर्यटन करते रहे । उत्तर-दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में दान किया और समुद्र के चारों ओर स्नान किया । सुमेरु और हिमालय पर्वत पर भी गये और शालग्राम, बद्री, केदार आदि में स्नान और दर्शन किये । ऐसे ही सब तीर्थस्नान, दान, तप, ध्यान और विधिसंयुक्त यात्रा करते करते एक वर्ष में अपने नगर में आये ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणेतीर्थयात्रावर्णनन्नाम द्वितीयसर्गः ॥२॥

Tuesday, August 31, 2010

श्रीयोगवशिष्ठ महारामायण

राजा बोले: हे भगवान्! रामचन्द्रजी कौन थे कैसे थे और कैसे होकर बिचरे सो कृपा करके कहो?

वाल्मीकिजी बोले, हे राजन्! शाप के वश से सच्चिदानन्द विष्णुजी ने जो अद्वैत ज्ञान से सम्पन्न हैं, अज्ञान को अंगीकार करके मनुष्य का शरीर धारण किया । इतना सुन राजा ने पूछा, हे भगवान्! चिदानन्द हरि को शाप किस कारण हुआ और किसने दिया सो कहो?

वाल्मीकिजी बोले, हे राजन्! एक काल में सनत्कुमार, जो निष्काम हैं, ब्रह्मपुरी में बैठे थे और त्रिलोक के पति विष्णु भगवान् भी वैकुण्ठ से उतरकर ब्रह्मपुरी में आये । तब ब्रह्मा सहित सर्वसभा उठकर खड़ी हुई और श्रीभगवान् का पूजन किया, पर सनत्कुमार ने पूजन नहीं किया । इस बात को देखकर विष्णु भगवान् बोले कि हे सनत्कुमार! तुमको निष्कामता का अभिमान है इससे तुम काम से आतुर होगे और स्वामि-कार्त्तिक तुम्हारा नाम होगा । सनत्कुमार बोले, हे विष्णो! सर्वज्ञता का अभिमान तुमको भी है, इसलिये कुछ काल के लिए तुम्हारी सर्वज्ञता निवृत्त होकर अज्ञानता प्राप्त होगी । हे राजन्! एक तो यह शाप हुआ, दूसरा एक और भी शाप है, सुनो । एक काल में भृगु की स्त्री जाती रही थी । उसके वियोग से वह ऋषि क्रोधित हुआ था उसको देखकर विष्णुजी हँसे तब भृगु ब्राह्मण ने शाप दिया कि हे विष्णो!मेरी तुमने हँसी की है सो मेरी नाई तुम भी स्त्री के वियोग से आतुर होगे । और एक दिवस देवशर्मा ब्राह्मण ने नरसिंह भगवान् को शाप दिया था सो भी सुनिये । एक दिन नरसिंह भगवान् गंगा के तीर पर गये और वहाँ देवशर्मा ब्राह्मण की स्त्री को देखकर नरसिंहजी भयानक रूप दिखाकर हँसे । निदान उनको देखकर ऋषि की स्त्री ने भय पाय प्राण छोड़ दिया । तब देवशर्मा ने शाप दिया कि तुमने मेरी स्त्री का वियोग किया, इससे तुम भी स्त्री का वियोग पावोगे । हे राजन् सनतकुमार भृगु और देवशर्मा के शाप से विष्णु भगवान् ने मनुष्य का शरीर धारण किया और राजा दशरथ के घर में प्रकटे । हे राजन्! वह जो शरीर धारण किया और आगे जो वृत्तान्त हुआ सो सावधान होकर सुनो । अनुभवात्मक मेरा आत्मा जो त्रिलोकी अर्थात् स्वर्ग, मृत्यु, और पाताल का प्रकाशकर्त्ता और भीतर बाहर आत्मतत्त्व से पूर्ण है उस सर्वात्मा को नमस्कार है । हे राजन! यह शास्त्र जो आरम्भ किया है इसका विषय, प्रयोजन और सम्बन्ध क्या है और अधिकारी कौन है सो सुनो ।

यह शास्त्र सत्-चित्त आनन्दरूप अचिन्त्यचिन्मात्र आत्मा को जताता है यह तो विषय है, परमानन्द आत्मा की प्राप्ति और अनात्म अभिमान दुःख की निवृत्ति प्रयोजन है और ब्रह्मविद्या और मोक्ष उपाय से आत्मपद प्रतिपादन सम्बन्ध है जिसको यह निश्चय है कि मैं अद्वैत-ब्रह्म अनात्मदेह से बाँधा हुआ हूँ सो किसी प्रकार छूटूँ वह न अति ज्ञानवान् है, न मूर्ख है, ऐसा विकृति आत्मा यहाँ अधिकारी है । यह शास्त्र मोक्ष (परमानन्द की प्राप्ति) करनेवाला है । जो पुरुष इसको विचारेगा वह ज्ञानवान् होकर फिर जन्ममृत्युरूप संसार में न आवेगा । हे राजन! यह महारामायण पावन है । श्रवण मात्र से ही सब पाप का नाशकर्त्ता है जिसमें रामकथा है । यह मैंने प्रथम अपने शिष्य भारद्वाज को सुनाई थी ।

एक समय भारद्वाज चित्त को एकाग्र करके मेरे पास आये और मैंने उसको उपदेश किया था । वह उसको सुनकर वचनरूपी समुद्र से साररूपी रत्न निकाल और हृदयमें धरकर एक समय सुमेरु पर्वत पर गया । वहाँ ब्रह्माजी बैठे थे, उसने उनको प्रणाम किया और उनके पास बैठकर यह कथा सुनाई । तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उससे कहा, हे पुत्र! कुछ वर माँग; मैं तुझ पर प्रसन्न हुआ हूँ । भारद्वाज ने, जिसका उदार आशय था, उनसे कहा, हे भूत-भविष्य के ईश्वर! जो तुम प्रसन्न हुए हो, तो यह वर दो कि सम्पूर्ण जीव संसार-सुख से मुक्त हों और परमपद पावें और उसी का उपाय भी कहो । ब्रह्माजी ने कहा, हे पुत्र! तुम अपने गुरु वाल्मीकिजी के पास जाओ । उसने आत्मबोध महारामायण शास्त्र का जो परमपावन संसार समुद्र के तरने का पुल है, आरम्भ किया है । उसको सुनकर जीव महामोहजनक संसार समुद्र से तरेंगे । निदान परमेष्ठी ब्रह्मा जिनकी सर्वभूतों के हित में प्रीति है आप ही, भारद्वाज को साथ लेकर मेरे आश्रम में आये और मैंने भले प्रकार से उनका पूजन किया । उन्होंने मुझसे कहा, हे मुनियोंमें श्रेष्ठ वाल्मीकि! यह जो तुमने रामके स्वभाव के कथन का आरम्भ किया है इस उद्यम का त्याग न करना; इसकी आदि से अन्त पर्यन्त समाप्ति करना; क्योंकि यह मोक्ष उपाय संसार रूपी समुद्र के पार करने का जहाज और इससे सब जीव कृतार्थ होंगे ।

इतना कहकर ब्रह्माजी, जैसे समुद्र से चक्र एक मुहूर्त पर्यन्त उठके फिर लीन हो जावे वैसे ही अन्तर्द्धान हो गये । तब मैंने भारद्वाज से कहा, हे पुत्र! ब्रह्माजी ने क्या कहा? भारद्वाज बोले हे भगवान्! ब्रह्माजी ने तुमसे यह कहा कि हे मुनियों में श्रेष्ठ! यह जो तुमने राम के स्वभावके कथन का उद्यम किया है उसका त्याग न करना; इसे अन्तपर्यन्त समाप्तिकरना क्योंकि; संसारसमुद्र के पार करने को यह कथा जहाज है और इससे अनेक जीव कृतार्थ होकर संसार संकट से मुक्त होंगे । इतना कह कर फिर वाल्मीकिजी बोले हे राजन! जब इस प्रकार ब्रह्माजीने मुझसे कहा तब उनकी आज्ञानुसार मैंने ग्रन्थ बनाकर भारद्वाज को सुनाया । हे पुत्र! वशिष्ठजी के उपदेश को पाकर जिस प्रकार रामजी निश्शंक हो बिचरे हैं वैसे ही तुम भी बिचरो । तब उसने प्रश्न किया कि हे भगवान्! जिस प्रकार रामचन्द्रजी जीवन्मुक्त होकर बिचरे वह आदि से क्रम करके मुझसे कहिये? वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता,कौशल्या, सुमित्रा और दशरथ ये आठ तो जीवन्मुक्त हुए हैं और आठ मन्त्री अष्टगण वशिष्ठ और वामदेव से आदि अष्टाविंशति जीवन्मुक्त हो बिचरे हैं उनके नाम सुनो । रामजी से लेकर दशरथपर्यन्त आठ तो ये कृतार्थ होकर परम बोधवान् हुए हैं और १ कुन्तभासी, २ शतवर्धन, ३ सुखधाम, ४ विभीषण, ५ इन्द्रजीत्, ६ हनुमान ७ वशिष्ठ और ८ वामदेव ये अष्टमन्त्री निश्शंक हो चेष्टा करते भये और सदा अद्वैत-निष्ठ हुए हैं । इनको कदाचित् स्वरूप से द्वैतभाव नहीं फुरा है । ये अनामय पद की स्थिति में तृप्त रहकर केवल चिन्मात्र शुद्धपर परमपावनता को प्राप्त हुए हैं ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणेकथारम्भवर्णनो नाम प्रथमस्सर्गः ॥१॥

Friday, August 27, 2010

वैराग्य प्रकरण

उस सत्चित् आनन्दरूप आत्मा को नमस्कार है जिससे सब भासते हैं और जिसमें सब लीन और स्थिर होते हैं एवं जिससे ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय, द्रष्टा, दर्शन, दृश्य और कर्त्ता, करण, कर्म सिद्ध होते हैं, जिस आनन्द के समुद्र के कण से सम्पूर्ण विश्व आनन्दवान् है और जिस आनन्द से सब जीव जीते हैं ।

अगस्त्यजी के शिष्य सुतीक्ष्ण के मन में एक संशय उत्पन्न हुआ तब वह उसके निवृत्त करने के अर्थ अगस्त्य मुनि के आश्रम में जाकर विधिसंयुक्त प्रणाम करके स्थित हुआ और नम्रता पूर्वक प्रश्न किया कि:

हे भगवान्! आप सर्वतत्त्वज्ञ और सर्व शास्त्रों के ज्ञाता हो एक संशय मुझको है सो कृपा करके निवृत्त करो । मोक्ष का कारण कर्म है या ज्ञान? अथवा दोनों?

इतना सुन अगस्त्यजी बोले कि हे ब्रह्मण्य! केवल कर्म मोक्ष का कारण नहीं और केवल ज्ञान से भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता; मोक्ष की प्राप्ति दोनों से ही होती है । कर्म करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है, मोक्ष नहीं होता और अतःकरण की शुद्धि के बिना केवल ज्ञान से भी मुक्ति नहीं होती; इससे दोनों से मोक्ष की सिद्धि होती है । कर्म करने से अतःकरण शुद्ध होता है, फिर ज्ञान उपजता है और तब मोक्ष होता है । जैसे दोनों पंखों से पक्षी आकाश मार्ग में सुख से उड़ता है वैसे ही कर्म और ज्ञान दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है । हे ब्रह्मण्य! इसी आशय के अनुसार एक पुरातन इतिहास है वह तुम सुनो ।

अग्निवेष का पुत्र कारण नाम ब्राह्मण गुरु के निकट जा षट् अंगों सहित चारों वेद अध्ययन करके गृह में आया और कर्म से रहित होकर तूष्णीं हो स्थित रहा अर्थात संशययुक्त हो कर्मोंसे रहित हुआ ।

जब उसके पिता ने देखा कि यह कर्मों से रहित हो गया है तो उससे कहा कि हे पुत्र! तुम कर्म क्यों नहीं करते? तुम कर्म के न करने से सिद्धता को कैसे प्राप्त होगे? जिस कारण तुम कर्म से रहित हुए हो वह कारण कहो? कारण बोला: हे पिता! मुझको एक संशय उत्पन्न हुआ है इसलिये कर्म से निवृत्त हुआ हूँ । वेद में एक ठौर तो कहा है कि जब तक जीता रहे तब तक कर्म अर्थात् अग्निहोत्रादिक करता रहे और एक ठौर कहा है कि न धन से मोक्ष होता है न कर्म से मोक्ष होता है, न पुत्रादिक से मोक्ष होता है और न केवल त्याग से ही मोक्ष होता है । इन दोनों में क्या कर्तव्य है मुझको यही संशय है सो आप कृपा करके निवृत्त करो और बतलाओ कि क्या कर्त्तव्य है?

अगस्त्यजी बोले हे सुतीक्ष्ण! जब कारण ने पिता से ऐसा कहा तब अग्निवेष बोले कि: हे पुत्र! एक कथा जो पहले हुई है उसको सुनकर हृदय में धारण कर फिर जो तेरी इच्छा हो सो करना । एक काल में सुरुचि नामक अप्सरा, जो सम्पूर्ण अप्सराओं में उत्तम थी, हिमालय पर्वत के सुन्दर शिखर पर जहाँ कि देवता और किन्नरगण, जिनके हृदय कामना से तृप्त थे, अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करते थे और जहाँ गंगाजी के पवित्र जल का प्रवाह लहर ले रहा था, बैठी थी । उसने इन्द्र का एक दूत अन्तरिक्ष से चला आता देखा और जब निकट आया तो उससे पूछा: अहो भाग्य, देवदूत! तुम देवगणों में श्रेष्ठ हो; कहाँ से आये हो और अब कहाँ जाओगे सो कृपा करके कहो?

देवदूत बोला: हे सुभद्रे! अरिष्टनेमि नामक एक धर्मात्मा राजर्षि ने अपने पुत्र को राज्य देकर वैराग्य लिया और सम्पूर्ण विषयों की अभिलाषा त्याग करके गन्धमादन पर्वत में जा तप करने लगा । उसी से मेरा एक कार्य था और उस कार्य के लिये मैं उसके पास गया था । अब इन्द्र के पास, जिसका मैं दूत हूँ, सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदन करने को जाता हूँ ।

अप्सरा ने पूछा: हे भगवान्! वह वृत्तान्त कौनसा है मुझसे कहो? मुझको तुम अतिप्रिय हो यह जानकर पूछती हूँ । महापुरुषों से जो कोई प्रश्न करता है तो वे उद्वेगरहित होकर उत्तर देते हैं । देवदूत बोला: हे भद्रे! वह वृत्तान्त मैं विस्तारपूर्वक तुमसे कहता हूँ मन लगाकर सुनो ।

जब उस राजा ने गन्धमादन पर्वत पर बड़ा तप किया तब देवताओं के राजा इन्द्र ने मुझको बुलाकर आज्ञा दी कि: हे दूत! तुम गन्धमादन पर्वत पर जो नाना प्रकार की लताओं और वृक्षों से पूर्ण है, विमान, अप्सरा और नाना प्रकार की सामग्री एवं गन्धर्व, यक्ष, सिद्ध, किन्नर, ताल, मृदङ्गादि वादित्र संग ले जाकर राजा को विमान पर बैठा के यहाँ ले आओ । तब मैं विमान और सामग्री सहित जहाँ राजा था आया और राजा से कहा: हे राजन! तुम्हारे कारण विमान ले आया हूँ; इस पर आरूढ़ होकर तुम स्वर्ग को चलो और देवताओं के भोग भोगो ।

इतना सुन राजा ने कहा कि: हे दूत! प्रथम तुम स्वर्ग का वृत्तान्त मुझे सुनाओ कि तुम्हारे स्वर्ग में क्या-क्या दोष और गुण हैं तो उनको सुनके मैं हृदयमें विचारूँ । पीछे जो मेरी इच्छा होगी तो चलूँगा । मैंने कहा कि हे राजन्! स्वर्ग में बड़े-बड़े दिव्य भोग हैं । जीव बड़े पुण्य से स्वर्ग को पाता है । जो बड़े पुण्यवाले होते हैं वे स्वर्ग के उत्तम सुख को पाते हैं; जो मध्यम पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के मध्यम सुख को पाते हैं और जो कनिष्ठ पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के कनिष्ठ सुख को पाते हैं । जो गुण स्वर्ग में हैं वे तो तुमसे कहे, अब स्वर्ग के जो दोष हैं वे भी सुनो । हे राजन्! जो आपसे ऊँचे बैठे दृष्ट आते हैं और उत्तम सुख भोगते हैं उनको देखकर ताप की उत्पत्ति होती है क्योंकि उनकी उत्कृष्टता सही नहीं जाती । जो कोई अपने समान सुख भोगते हैं उनको देखकर क्रोध उपजता है कि ये मेरे समान क्यों बैठे है और जो आपसे नीचे बैठे हैं उनको देखकर अभिमान उपजता है कि मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ । एक और भी दोष है कि जब पुण्य क्षीण होते हंज तब जीव को उसी काल में मृत्युलोक में गिरा देते हैं, एक क्षण भी नहीं रहने देते । यही स्वर्ग में गुण और दोष हैं । हे भद्रे! जब इस प्रकार मैंने राजा से कहा तो राजा बोला कि हे देवदूत! उस स्वर्ग के योग्य हम नहीं हैं और हमको उसकी इच्छा भी नहीं है । जैसे सर्प अपनी त्वचा को पुरातन जानकर त्याग देता है वैसे ही हम उग्र तप करके यह देह त्याग देंगे । हे देवदूत! तुम अपने विमान को जहाँ से लाये हो वहीं ले जाओ, हमारा नमस्कार है ।

हे देवि! जब इस प्रकार राजा ने मुझसे कहा तब मैं विमान और अप्सरा आदि सबको लेकर स्वर्ग को गया और सम्पूर्ण वृत्तान्त इन्द्र से कहा । इन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ और सुन्दर वाणी से मुझसे बोला कि: हे दूत! तुम फिर जहाँ राजा है वहाँ जाओ । वह संसार से उपराम हुआ है । उसको अब आत्मपद की इच्छा हुई है इसलिये तुम उसको अपने साथ वाल्मीकिजी के पास , जिसने आत्मतत्त्व को आत्माकार जाना है, ले जाकर मेरा यह सन्देशा देना कि हे महाऋषे! इस राजा को तत्त्वबोध का उपदेश करना क्योंकि यह बोध का अधिकारी है । इसको स्वर्ग तथा और पदार्थों भी इच्छा नहीं, इससे तुम इसको तत्त्व बोध का उपदेश करो और यह तत्त्वबोध को पाकर संसारदुःख से मुक्त हो ।

हे सुभद्रे! जब इस प्रकार देवराज ने मुझसे कहा तब मैं वहाँ से चलकर राजाके निकट आया और उससे कहा कि हे राजन्! तुम संसारसमुद्र से मोक्ष होने के निमित्त वाल्मीकिजी के पास चलो; वे तुमको उपदेश करेंगे । उसको साथ लेकर मैं वाल्मीकिजी स्थान पर आया और उस स्थान में राजा को बैठा और प्रणामकर इन्द्र का सन्देशा दिया । तब वाल्मीकिजी ने कहा: हे राजन् कुशल तो है? राजा बोले, हे भगवान्! आप परमतत्त्वज्ञ और वेदान्त जाननेवालों में श्रेष्ठ हैं, मैं आपके दर्शन करके कृतार्थ हुआ और अब मुझको कुशलता प्राप्त हुई है । मैं आपसे पूछता हूँ कृपा करके उत्तर दीजिए कि संसार बन्धन से कैसे मुक्ति हो?

इतना सुन वाल्मीकिजी बोले हे राजन! महारामायण औषध तुमसे कहता हूँ उसको सुनके उसका तात्पर्य हृदय में धारने का यत्न करना । जब तात्पर्य हृदय में धारोगे तब जीवन्मुक्त होकर बिचरोगे । हे राजन् वह वशिष्ठजी और रामचन्द्रजी का संवाद है और उसमें, मोक्ष का उपाय कहा है । उसको सुन कर जैसे रामचन्द्रजी अपने स्वभाव में स्थित हुए और जीवन्मुक्त होकर बिचरे हैं वैसे ही तुम भी बिचरोगे ।

Saturday, July 31, 2010

'योगवासिष्ठ महारामायण' से आत्मज्ञान

कलियुग के बेचारे मानव में शारीरिक क्षमताएँ नहीं हैं, मानसिक सच्चाइयाँ नहीं हैं, बौद्धिक ऊँचाइयाँ नहीं हैं फिर भी 'योगवासिष्ठ महारामायण' जैसा ऊँचा ग्रंथ उसे पढ़ने-सुनने को मिल रहा है, यह उसका कितना सौभाग्य है। आज त्रेतायुग (जिस युग में वसिष्ठजी द्वारा भगवान श्रीरामजी को यह उपदेश दिया गया था) जैसा शरीर नहीं है, त्रेतायुग जैसी सामाजिक व्यवस्था नहीं है तथा वैसी मानसिक पवित्रता और सच्चाई भी नहीं है। लेकिन त्रेतायुग और सतयुग में सत्संग के विचार द्वारा श्रीरामजी जैसों को, श्रीरामजी के गुरुओं को, तत्कालीन लोगों को जो सत्यस्वरूप परमात्मा का ज्ञान, परमात्म-शान्ति और परमात्म-पद की प्राप्ति होती थी, वही परमात्म-ज्ञान, परमात्म-शांति और परमात्म-पद इस युग में भी हम पा सकते हैं। अपितु उन युगों की अपेक्षा इस युग में और सरलता से पा सकते हैं। कलियुग में मनुष्य शरीर से, मन से तथा बुद्धि से भी गरीब हो गया है। वह ज्यादा समय मन को एकाग्र और मौन नहीं रख सकता। परमात्मा ने कलियुग में ऐसी व्यवस्था की है कि मनुष्य थोड़ा सा साधन करे तो भी उसे बहुत सारी उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाय। परमात्मा से मुलाकात करने हेतु मेरे गुरुदेव के गुरुदेव ने जितना परिश्रम किया, जितनी तपस्या की, उससे कम परिश्रम में मेरे गुरुदेव को परमात्मा की मुलाकात हुई। लेकिन मेरे गुरुदेव को जो तप-तितिक्षा सहनी पड़ी, उसका हजारवाँ हिस्सा भी मुझे गुरु-प्रसाद पाने हेतु सहन नहीं करना पड़ा। फिर भी मुझे जो सहन करना पड़ा, उतना मेरे साधकों को नहीं करना पड़ रहा है और सहज में ही उन्हें साधना का मार्ग मिल रहा है।

भगवान श्रीरामजी का विवेक मात्र 16 वर्ष की उम्र में जग गया और वे विवेक-विचार में खोये रहने लगे। उन्हीं दिनों यज्ञों का ध्वंस करने वाले मारीच आदिर राक्षस महर्षि विश्वामित्रजी के भी यज्ञ में विघ्न डालकर उन्हें तंग कर रहे थे। विश्वामित्र जी ने सोचा कि 'राजा दशरथ धर्मात्मा हैं। मैं उनसे मदद लूँ।' वे अयोध्या गये। राजा दशरथ को जैसे ही खबर मिली कि विश्वामित्र जी आये हैं, वे सिंहासन से तुरंत उठ खड़े हुए और स्वयं उनके पास जाकर उनके चरणों में दंडवत् प्रणाम किया। राजा दशरथ इतना आदर करते थे आत्मज्ञानी महापुरुषों का !

दशरथ जी ने विश्वामित्र जी को तिलक किया, उनकी आरती उतारी, फिर पूछाः "मुनिशार्दूल ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?"

विश्वामित्रजी बोलेः "जो माँगूगा वह दोगे ?"

"महाराज ! मैं और मेरा राज्य आपके चरणों में अर्पित है।"

"यह नहीं चाहिए। आपके सुपुत्र श्रीराम और लक्ष्मण मुझे दे दो।"

यह सुनकर राजा दशरथ मूर्च्छित हो गये, फिर होश में आने पर बोलेः "महाराज ! यह मत माँगो, कुछ और माँग लो।"

विश्वामित्रजी क्रोधित होकर बोलेः "अच्छा, खाली घर से साधु खाली ही जाता है। अभागा आदमी क्या जाने साधु की सेवा ? कौन अभागा मनुष्य साधु के दैवी कार्य में सहभागी हो सकता है ? हम यह चले।"

दशरथ जी घबराये कि संत रूठकर, नाराज होकर चले जायें यह ठीक नहीं है। वसिष्ठजी ने भी दशरथ को समझाया कि "विश्वामित्र जी के पास वज्र जैसा तपोबल है। ये स्वयं समर्थ हैं राक्षसों को शाप देने में, लेकिन संत लोहे से लोहा काटना चाहते हैं, सोने से नहीं। विश्वामित्र जी आपके राजकुमारों द्वारा ताड़का आदि का वध करायेंगे और उन्हें प्रसिद्ध करेंगे। इसलिए राम-लक्ष्मण को विश्वामित्रजी को अर्पण करने में ही आपकी शोभा है।"

राजा दशरथ ने कहाः "श्रीराम तो विवेक करके संसार से उपराम हो गये हैं।"

वासिष्ठ जी ने कहाः "साधो-साधो ! जब श्रीराम जी का विवेक जगा है तो हम उन्हें ज्ञानी बना कर भेज देंगे, कर्मबंधन से पार करके भेज देंगे। वे ब्रह्मज्ञानी होकर राज्य करें।"

भगवान श्रीराम जी को आदर के साथ राजसभा में लाया गया और वहाँ उन्होंने अपने हृदय के विचार प्रकट किये। इन्हीं विचारों का वर्णन 'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' के पहले प्रकरण 'वैराग्य प्रकरण' में किया गया है। फिर वासिष्ठ जी और विश्वामित्रजी ने श्रीराम जी के वैराग्य की सराहना की और जैसे बीज बोकर सिंचाई की जाती है, वैसे ही उनको उपदेश कर उनमें संस्कार सींचे। इन उपदेशों का वर्णन दूसरे प्रकरण 'मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण' में किया गया है। फिर 'सृष्टि का मूल क्या है और जगत की उत्पत्ति कैसे हुई ?' – इसका उपदेश दिया गया, जिसका वर्णन तीसरे प्रकरण 'उत्पत्ति प्रकरण' में किया गया है। फिर अनात्मा से उपराम होकर आत्मा में स्थिति करने का उपदेश दिया गया, जिसका वर्णन चौथे प्रकरण 'स्थिति प्रकरण' में किया गया है। फिर उपदेश का सिलसिला बढ़ता गया सुख-दुःख में समता का अभ्यास करने और परमात्मा में विश्रांति पाने का उपदेश दिया गया, जिसका वर्णन पाँचवें प्रकरण 'उपशम प्रकरण' में किया गया है। जैसे तेल खत्म होने पर दीया बुझ जाता है, निर्वाण हो जाता है, वैसे ही मन को हमारी सत्ता न मिलने से उसकी दौड़, भटकान खत्म हो जाती है अर्थात् मन का निर्वाण हो जाता है। इसी का उपदेश आखिरी छठे प्रकरण 'निर्वाण प्रकरण' में दिया गया है।

जो दुःखमय संसार की चोटों से बचकर परम सुख, परम शीतलता का अनुभव करना और अपना कर्त्तव्य निर्लेप भाव से निभाना चाहते है, उन सभी के लिए 'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' बहुत अच्छा है।

स्वामी रामतीर्थ ने इसका बार-बार अध्ययन किया और वे इसके ज्ञान में, आत्मानुभव में इतने मस्त हुए कि अपने देश में तो आत्मशांति का प्रसाद बाँटा ही लेकिन अमेरिका भी गये और वहाँ के प्रेसीडेंट रुजवेल्ट ने उनसे बड़ी शांति पायी। यह सदग्रंथ पढ़कर मनन करने से व्यक्ति स्वयं ही शांति पाता है, परमात्मा में सराबोर हो जाता है तथा दूसरों को भी शांति देने की क्षमता उसमें आ जाती है। स्वामी रामतीर्थ बोलते थेः "राम (स्वामी रामतीर्थ) के विचार से अत्यंत आश्चर्यजनक और सर्वोपरि श्रेष्ठ ग्रंथ, जो इस संसार में सूर्य के तले कभी लिखे गये, उनमें से 'श्री योगवासिष्ठ' एक ऐसा ग्रंथ है जिसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति इस मनुष्यलोक में आत्मज्ञान पाये बिना नहीं रह सकता।"

'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' बार-बार विचारने योग्य है।

वेदांत ग्रंथ दो प्रकार के होते हैं- एक होते हैं प्रक्रिया ग्रंथ और दूसरे होते हैं सिद्धान्त ग्रंथ।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पाँच स्थूल भूतों तथा सूक्ष्म भूतों की जानकारी, स्थूल भूतों से स्थूल शरीर कैसे बना ? सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्म शरीर कैसे बना ? चैतन्य स्वरूप आत्मा इससे पृथक कैसे है ? – इस प्रकार जो ग्रंथ विभिन्न चरणों में, प्रक्रियात्मक ढंग से परब्रह्म-परमात्मा की समझ देते हैं, उन ग्रन्थों को कहा जाता है 'प्रक्रिया ग्रंथ'। जैसे – पंचीकरण, विचारसागर, विचार-चंद्रोदय, पंचदशी आदि।

'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' सिद्धान्त ग्रंथ है। इसमें कहानियाँ, संवाद, इतिहास – सब कहे गये हैं और घुमा फिराकर वही सिद्धान्त की सारभूत बात कही गयी है। पुराणों में राजा हरिश्चंद्र आदि पूर्वकालीन श्रेष्ठजनों के प्रेरक चरित्रों और उनकी रसमय धर्मचर्चाओं के द्वारा सत्य को समझाया गया है। इस प्रकार पुराणों में कथा-प्रसंग अधिक आते हैं और सार बात (आत्मा-परमात्मा की बात) का कहीं-कहीं संकेत है, परंतु 'श्री योगवासिष्ठ' कदम-कदम पर सार बात है।

वसिष्ठ जी कहते हैं- "जिसका अंतःकरण मुक्ति के लिए खूब लालायित हो, सत्कर्म करके खूब शुद्ध हो गया हो तथा ध्यान करके खूब एकाग्र हो गया हो उसे यह उपदेश सुनने मात्र से आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। जिन लोगों को इस ग्रंथ में, इस ज्ञान में प्रीति नहीं है, वे अपरिपक्व हैं। उनको चाहिए कि व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान, यज्ञ, होम, हवन आदि करें। इन्हें करके जब उनका अंतःकरण परिपक्व होगा, तब उनको इसमें रुचि होगी।
परम पूज्य संत श्री आसाराम जी बापू
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