श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Thursday, September 30, 2010

सब अनर्थों का कारण वासना ही है

हे शिष्य! संसार भ्रममात्र सिद्ध है । इसको भ्रममात्र जानकर विस्मरण करना यही मुक्ति है । जीव के बन्धन का कारण वासना है और वासना से ही भटकता फिरता है । जब वासना का क्षय हो जाय तब परमपद की प्राप्ति हो! वासना का एक पुतला है उसका नाम मन है । जैसे जल सरदी की दृढ़ जड़ता पाकर बरफ हो जाता है और फिर सूर्य के ताप से पिघल कर जल होता है तो केवल शुद्ध ही रहता है वैसे ही आत्मा रूपी जल है उसमें संसार की सत्यतारूपी जड़ता शीतलता है और उससे मन रूपी बरफ का पुतला हुआ है । जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होगा तब संसार की सत्यतारूपी जड़ता और शीतलता निवृत्त हो जावेगी । जब संसार की सत्यता और वासना निवृत्त हुई तब मन नष्ट हो जावेगा और जब मन नष्ट हुआ तो परम कल्याण हुआ । इससे इसके बन्धन का कारण वासना ही है और वासना के क्षय होने से मुक्ति है । वह वासना दो प्रकार की है- एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । अशुद्धवासना से अपने वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से अनात्मा को देहादिक हैं उनमें अहंकार करता है और जब अनात्म में आत्म अभिमान हुआ, तब नाना प्रकार की वासना उपजती हैं जिससे घटीयंत्र की नाईं भ्रमता रहता है । हे साधो! यह जो पञ्चभूत का शरीर तुम देखते हो सो सब वासनारूप है और वासना से ही खड़ा है । जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुँथे होते हैं और जब धागा टूट जाता है तब न्यारे न्यारे हो जाते हैं और नहीं ठहरते वैसे ही वासना के क्षय होने पर पञ्चभूत का शरीर नहीं रहता । इससे सब अनर्थों का कारण वासना ही है । शुद्ध वासना में जगत् का अत्यन्त अभाव निश्चय होता है । हे शिष्य! अज्ञानी की वासना जन्म का कारण होती है और ज्ञानी की वासना जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कच्चा बीज उगता है और जो दग्ध हुआ है सो फिर नहीं उगता वैसे ही अज्ञानी की वासना रससहित है इससे जन्म का कारण है और ज्ञानी की वासना रसरहित है वह जन्म का कारण नहीं । ज्ञानी की चेष्टा स्वाभाविक होती है । वह किसी गुण से मिलकर अपने में चेष्टा नहीं देखता । वह खाता, पीता, लेता, देता, बोलता चलता एवम् और अन्य व्यवहार करता है पर अन्तःकरण में सदा अद्वैत निश्चय को धरता है कदाचित् द्वैतभावना उसको नहीं फुरती । वह अपने स्वभाव में स्थित है इससे उसकी चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कुम्हार के चक्र को जब तक घुमावे तब तक फिरता है और जब घुमाना छोड़ दे तब स्थीयमान गति से उतरते उतरते स्थिर रह जाता है वैसे ही जब तक अहंकार सहित वासना होती है तब तक जन्म पाता है और जब अहंकार से रहित हुआ तब फिर जन्म नहीं पाता । हे साधो! इस अज्ञानरूपी वासना के नाश करने को एक ब्रह्मविद्या ही श्रेष्ठ उपाय है जो मोक्ष उपायक शास्त्र है । यदि इसको त्याग कर और शास्त्ररूपी गर्त्त में गिरेगा तो कल्पपर्यन्त भी अकृत्रिम पद को न पावेगा । जो ब्रह्मविद्या का आश्रय करेगा वह सुख से आत्मपद को प्राप्त होगा हे भारद्वाज! यह मोक्ष उपाय रामजी और वशिष्ठजी का संवाद है, यह विचारने योग्य है और बोध का परम कारण है ।

Thursday, September 23, 2010

स्वर्ग में गुण और दोष

हे राजन्! स्वर्ग में बड़े-बड़े दिव्य भोग हैं । जीव बड़े पुण्य से स्वर्ग को पाता है । जो बड़े पुण्यवाले होते हैं वे स्वर्ग के उत्तम सुख को पाते हैं; जो मध्यम पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के मध्यम सुख को पाते हैं और जो कनिष्ठ पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के कनिष्ठ सुख को पाते हैं । जो गुण स्वर्ग में हैं वे तो तुमसे कहे, अब स्वर्ग के जो दोष हैं वे भी सुनो । हे राजन्! जो आपसे ऊँचे बैठे दृष्ट आते हैं और उत्तम सुख भोगते हैं उनको देखकर ताप की उत्पत्ति होती है क्योंकि उनकी उत्कृष्टता सही नहीं जाती । जो कोई अपने समान सुख भोगते हैं उनको देखकर क्रोध उपजता है कि ये मेरे समान क्यों बैठे है और जो आपसे नीचे बैठे हैं उनको देखकर अभिमान उपजता है कि मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ । एक और भी दोष है कि जब पुण्य क्षीण होते हैं तब जीव को उसी काल में मृत्युलोक में गिरा देते हैं, एक क्षण भी नहीं रहने देते । यही स्वर्ग में गुण और दोष हैं ।

Wednesday, September 8, 2010

पुरुषार्थ परम दैव है.....

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जीवन्मुक्ति और विदेह-मुक्ति में कुछ भेद नहीं है । जैसे जल स्थिर हैं तो भी जल है और तरंग है तो भी जल है वैसे ही जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कुछ भेद नहीं है । हे रामजी! जीवन्‌मुक्ति और विदेहमुक्ति का अनु भव तुमको प्रत्यक्ष नहीं भासता, क्योंकि स्वसंवेद है और उनमें जो भेद भासता है सो सम्यकदर्शी को भासता है ज्ञानवान् को भेद नहीं भासता । हे मननकर्त्ताओं में श्रेष्ठ रामजी! जैसे वायु स्पन्दरूप होती है तो भी वायु है और निस्स्पन्द होती है तो भी वायु है, निश्चय करके कुछ भेद नहीं पर और जीव को स्पन्द होती है तो भासती और निस्स्पन्द होती है तो नहीं भासती वैसे ही ज्ञानवान् पुरुष को जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति में कुछ भेद नहीं, वह सदा अद्वैत निश्चयवाला और इच्छा से रहित है । जब जीव को उसका शरीर भासता है तब जीवन्मुक्ति कहते हैं और जब शरीर अदृश्य होता है तब विदेह मुक्ति कहते हैं । पर उसको दोनों तुल्य है । हे रामजी! अब प्रकृत प्रसंग को जो श्रवण का भूषण है सुनिये । जो कुछ सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से सिद्ध होता है । पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता । लोग जो कहते हैं कि दैव करेगा सो होगा यह मूर्खता है । चन्द्रमा जो हृदय को शीतल और उल्लासकर्ता भासता है इसमें यह शीतलता पुरुषार्थ से हुई है । हे रामजी! जिस अर्थ की प्रार्थना और यत्न करे और उससे फिरे नहीं तो अवश्य पाता है । पुरुष प्रयत्न किसका नाम है सो सुनिये । सन्तजन और सत्य शास्त्र के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ (प्रयत्न) है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है । जिस निमित्त यत्न करता है सोई पाता है । एक जीव पुरुषार्थ (प्रयत्न) करके इन्द्र की पदवी पाकर त्रिलोकी का पति हो सिंहासन पर आरूढ़ हुआ है । हे रामचन्द्र! आत्मतत्त्व में जो चैतन्य संवित है सो संवेदन रूप होकर फुरती है और सोई अपने पुरुषार्थ से ब्रह्म पद को प्राप्त हुई है । इसलिए देखो जिसको कुछ सिद्धता प्राप्त हुई है सो अपने पुरुषार्थ से ही हुई है । केवल चैतन्य आत्मतत्व है । उसमें चित्त संवेदन स्पन्दरूप है । यह चित्त संवेदन ही अपने पुरुषार्थ से गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुरूपी होता है और पुरुषोत्तम कहाता है और यही चित्तसंवेदन अपने पुरुषार्थ से रुद्ररूप हो अर्द्धांग में पार्वती , मस्तक में चन्द्रमा और नीलकण्ठ परमशान्तिरूप को धारण करता है इससे जो कुछ सिद्ध होता है सो पुरुषार्थ से ही होता है । हे रामजी! पुरुषार्थ से सुमेरु का चूर्ण किया चाहे तो भी वह भी कर सकता है । यदि पूर्व दिन में दुष्कृत किया हो और अगले दिन में सुकृत करे तो दुष्कृत दूर हो जाता है । जो अपने हाथ से चरणामृत भी ले नहीं सकता वह यदि पुरुषार्थ करे तो वह पृथ्वी को खण्ड खण्ड करने को समर्थ होता है ।

Tuesday, September 7, 2010

ब्रह्मः अनन्त शक्तियों का पुंज


पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू

स्पन्दनशक्ति के अलावा और अनेकानेक शक्तियाँ ब्रह्म में समाविष्ट हैं। ब्रह्म ही अनेक शक्तियों का पुंज है। ब्रह्म ही अपनी शक्तियों को जहां चाहे, प्रकट कर सकता है।
 
श्रीयोगवाशिष्ठ रामायण में कहा हैः
सर्वशक्तिमयो आत्मा। आत्मा (परमात्मा) सब शक्तियों से युक्त है। वह जिस शक्ति की भावना जहां करे, वहीं अपने संकल्प द्बारा उसे प्रकट हुआ देखता है।
 
सर्वशक्ति हि भगवानयैव तस्मै हि रोचते।
 
भगवान ही सब प्रकार की शक्तियों वाला तथा सब जगह वर्तमान है। वह जहां चाहे अपनी शक्ति को प्रकट कर सकता है। वास्तव में नित्य, पूर्ण और अक्षय ब्रह्म में ही समस्त शक्तियाँ मौजूद हैं। संसार में कोई वस्तु ऐसी है ही नहीं जो सर्वरूप से प्रतिष्ठित ब्रह्म में मौजूद न हो। शांत आत्मा, ब्रह्म में ज्ञान शक्ति, क्रियाशक्ति आदि अनेकानेक शक्तियाँ वर्त्तमान हैं ही। ब्रह्म की चेतनाशक्ति शरीरधारी जीवों में दिखाई देती है तो उसकी स्पन्दनशक्ति, जिसे क्रियाशक्ति भी कहते हैं, हवा में दिखती है। उसी शक्तिरूप ब्रह्म की जड़शक्ति पत्थर में है तो द्रवशक्ति (बहने की शक्ति) जल में दिखती है। चमकने की शक्ति का दर्शन हम आग में कर सकते हैं। शून्यशक्ति आकाश में, सब कुछ होने की भवशक्ति संसार की स्थिति में, सबको धारण करने की शक्ति दशों दिशाओं में, नाशशक्ति नाशों में, शोकशक्ति शोक करने वालों में, आनन्दशक्ति प्रसन्नचित्त वालों में, वीर्यशक्ति योध्दाओं में, सृष्टि करने की शक्ति सृष्टि में देख सकते हैं। कल्प के अन्त में सारी शक्तियाँ स्वयं ब्रह्म में रहती हैं।
 
परमेश्वर की स्वाभाविक स्पन्दनशक्ति प्रकृति कहलाती है। वही जगन्माया नाम से भी प्रसिध्द है। यह स्पन्दनशक्तिरूपी भगनान की इच्छा इस दृश्य जगत की रचना करती है। जब शुध्द संवित में जड़शक्ति का उदय हुआ तो संसार की विचित्रता उत्पन्न हुई। जैसे चेतन मकड़ी से जड़ जाले की उत्पत्ति हुई वैसे ही चेतन ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई। ब्रह्मानन्दस्वरूप आत्मा ही भाव की दृढ़ता से मिथ्यारूप में प्रकट हो रहा है।
 
प्रकृति के तीन प्रकार हैं- सूक्ष्म, मध्यम और स्थूल। तीनों अवस्थाओं में प्रकृति स्थित रहती है। इसी कारण प्रकृति भी तीन प्रकार की कहलाई। इसके भी तीन भेद हुए- सत्त्व, रज, तम। त्रिगुणात्मक प्रकृति को अविद्या भी कहते हैं। इसी अविद्या से प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सारा जगत अविद्या के आश्रयगत है। इससे परे परब्रह्म है। जैसे फूल और उसकी सुगन्ध, धातु और आभूषण, अग्नि और उसकी ऊष्णता एकरूप है वैसे ही चित्त और स्पन्दनशक्ति एक ही है। मनोमयी स्पन्दनशक्ति उस ब्रह्म से भिन्न हो ही नहीं सकती। जब चितिशक्ति क्रिया से निवृत्त होकर अपने अधिष्टान की ओर यानी ब्रह्म में लौट आती है और वहीं शांत भाव से स्थित रहती है तो उसी अवस्था को शांत ब्रह्म कहते हैं। जैसे सोना किसी आकार के बिना नहीं रहता वैसे ही परब्रह्म भी चेतनता के बिना, जो कि उसकी स्वभान है, स्थित नहीं रहता. जैसे तिक्तता के बिना मिर्च, मधुरता के बिना गन्ने का रस नहीं रहता वैसे चित्त की चेतनता स्पन्दन के बिना नहीं रहती।
 
प्रकृति से परे स्थित पुरूष सदा ही शरद ऋतु के आकाश की तरह स्वच्छ, शांत व शिवरूप है। भ्रमरूपवाली प्रकृति परमेश्वर की इच्छारूपी स्पन्दनात्मक शक्ति है। वह तभी तक संसार में भ्रमण करती है कि जब तक वह नित्य तृप्त और निर्विकार शिव का दर्शन नही करती। जैसे नदी समुद्र में पड़ कर अपना रूप छोड़कर समुद्र ही बन जाती है वैसे ही प्रकृति पुरूष को प्राप्त करके पुरूषरूप हो जाती है, चित्त के शांत हो जाने पर परमपद को पाकर तद्रूप हो जाती है।
 
जिससे जगत के सब पदार्थों की उत्पत्ति होती है, जिसमें सब पदार्थ स्थित रहते हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, जो सब जगह, सब कालों में और सब वस्तुओं में मौजूद रहता है उस परम तत्त्व को ब्रह्म कहते हैं।
 
यत: सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च।
यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नम:।।
ज्ञाता ज्ञानं तथाज्ञेयं द्रष्टादर्शनदृश्यभू:।
कर्ता हेतु: क्रिया यस्मात्तस्मै ज्ञत्यात्मने नम:।।
स्फुरन्तिसीकरा यस्मादानन्दरस्याम्बरेsवनौ।
सर्वेषां जीवनं तस्मै ब्रह्मानन्दात्मने नम:।।
 
( श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण: १.१.१-२-३ )
 
जिससे सब प्राणी प्रकट होते हैं, जिसमें सब स्थित हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, उस सत्यरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
जिससे ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय का दृष्टा-दर्शन-दृश्य का तथा कर्त्ता, हेतु और क्रिया का उदय होता है उस ज्ञानस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
जिससे पृथ्वी और स्वर्ग में आनंन्द की वर्षा होती है और जिससे सब का जीवन है उस ब्रह्मानंदस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!
 
ब्रह्म केवल उसको जाननेवाले के अनुभव में ही आ सकता है, उसका वर्णन नहीं हो सकता। वह अवाच्य, अनभिव्यक्त और इन्द्रियों से परे है। ब्रह्म का ज्ञान केवल अपने अनुभव द्वारा ही होता है। वह परम पराकाष्ठास्वरूप है। वह सब दृष्टियों की सर्वोत्तम दृष्टि है। वह सब महिमाओं की महिमा है। वह सब प्राणिरूपी मोतियों का तागा है जो कि उनके हृदयरूपी छेदों में पिरोया हुआ है। वह सब प्राणिरूपी मिर्चों की तीक्षणता है। वह पदार्थ का पदार्थतत्त्व है। वह सर्वोत्तम तत्त्व है।
उस परमेश्ववर तत्त्व को प्राप्त करना, उसी सर्वेश्वर में स्थिति करना-यही मानव जीवन की सार्थकता है

Wednesday, September 1, 2010

तीर्थयात्रावर्णन

भारद्वाज ने पूछा हे भगवान्! जीवन्मुक्त की स्थिति कैसी है और रामजी कैसे जीवन्मुक्त हुए हैं वह आदि से अन्तपर्यन्त सब कहो? वाल्मीकिजी बोले, हे पुत्र! यह जगत् जो भासता है सो वास्तविक कुछ नहीं उत्पन्न हुआ; अविचार करके भासता है और विचार करने से निवृत्त हो जाता है । जैसे आकाश में नीलता भासती है सो भ्रम से वैसे ही है यदि विचार करके देखिए तो नीलता की प्रतीति दूर हो जाती है वैसे ही अविचार से जगत भासता है और विचार से लीन हो जाता है । हे शिष्य! जब तक सृष्टि का अत्यन्त अभाव नहीं होता तब तक परमपद की प्राप्ति नहीं होती । जब दृश्य का अत्यन्त अभाव हो जावे तब शुद्ध चिदाकाश आत्मसत्ता भासेगी । कोई इस दृश्य का महाप्रलय में अभाव कहते हैं परन्तु मैं तुमको तीनों कालों का अभाव कहता हूँ । जब इस शास्त्र को श्रद्धासंयुक्त आदि से अन्त तक सुनकर धारण करे भ्रान्ति निवृत्ति हो जावे और अव्याकृत पद की प्राप्ति हो । हे शिष्य! संसार भ्रममात्र सिद्ध है । इसको भ्रममात्र जानकर विस्मरण करना यही मुक्ति है । जीव के बन्धन का कारण वासना है और वासना से ही भटकता फिरता है । जब वासना का क्षय हो जाय तब परमपद की प्राप्ति हो! वासना का एक पुतला है उसका नाम मन है । जैसे जल सरदी की दृढ़ जड़ता पाकर बरफ हो जाता है और फिर सूर्य के ताप से पिघल कर जल होता है तो केवल शुद्ध ही रहता है वैसे ही आत्मा रूपी जल है उसमें संसार की सत्यतारूपी जड़ता शीतलता है और उससे मन रूपी बरफ का पुतला हुआ है । जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होगा तब संसार की सत्यतारूपी जड़ता और शीतलता निवृत्त हो जावेगी । जब संसार की सत्यता और वासना निवृत्त हुई तब मन नष्ट हो जावेगा और जब मन नष्ट हुआ तो परम कल्याण हुआ । इससे इसके बन्धन का कारण वासना ही है और वासना के क्षय होने से मुक्ति है । वह वासना दो प्रकार की है- एक शुद्ध और दूसरी अशुद्ध । अशुद्धवासना से अपने वास्तविक स्वरूप के अज्ञान से अनात्मा को देहादिक हैं उनमें अहंकार करता है और जब अनात्म में आत्म अभिमान हुआ, तब नाना प्रकार की वासना उपजती हैं जिससे घटीयंत्र की नाईं भ्रमता रहता है । हे साधो! यह जो पञ्चभूत का शरीर तुम देखते हो सो सब वासनारूप है और वासना से ही खड़ा है । जैसे माला के दाने धागे के आश्रय से गुँथे होते हैं और जब धागा टूट जाता है तब न्यारे न्यारे हो जाते हैं और नहीं ठहरते वैसे ही वासना के क्षय होने पर पञ्चभूत का शरीर नहीं रहता । इससे सब अनर्थों का कारण वासना ही है । शुद्ध वासना में जगत् का अत्यन्त अभाव निश्चय होता है । हे शिष्य! अज्ञानी की वासना जन्म का कारण होती है और ज्ञानी की वासना जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कच्चा बीज उगता है और जो दग्ध हुआ है सो फिर नहीं उगता वैसे ही अज्ञानी की वासना रससहित है इससे जन्म का कारण है और ज्ञानी की वासना रसरहित है वह जन्म का कारण नहीं । ज्ञानी की चेष्टा स्वाभाविक होती है । वह किसी गुण से मिलकर अपने में चेष्टा नहीं देखता । वह खाता, पीता, लेता, देता, बोलता चलता एवम् और अन्य व्यवहार करता है पर अन्तःकरण में सदा अद्वैत निश्चय को धरता है कदाचित् द्वैतभावना उसको नहीं फुरती । वह अपने स्वभाव में स्थित है इससे उसकी चेष्टा जन्म का कारण नहीं होती । जैसे कुम्हार के चक्र को जब तक घुमावे तब तक फिरता है और जब घुमाना छोड़ दे तब स्थीयमान गति से उतरते उतरते स्थिर रह जाता है वैसे ही जब तक अहंकार सहित वासना होती है तब तक जन्म पाता है और जब अहंकार से रहित हुआ तब फिर जन्म नहीं पाता । हे साधो! इस अज्ञानरूपी वासना के नाश करने को एक ब्रह्मविद्या ही श्रेष्ठ उपाय है जो मोक्ष उपायक शास्त्र है । यदि इसको त्याग कर और शास्त्ररूपी गर्त्त में गिरेगा तो कल्पपर्यन्त भी अकृत्रिम पद को न पावेगा । जो ब्रह्मविद्या का आश्रय करेगा वह सुख से आत्मपद को प्राप्त होगा । हे भारद्वाज! यह मोक्ष उपाय रामजी और वशिष्ठजी का संवाद है, यह विचारने योग्य है और बोध का परम कारण है । इसे आदि से अन्तपर्यन्त सुनो और जैसे रामजी जीवन्मुक्त हो विचरे हैं सो भी सुनो । एक दिन रामजी अध्ययनशाला से विद्या पढ़के अपने गृह में आये और सम्पूर्ण दिन विचारसहित व्यतीत किया । फिर मन में तीर्थ ठाकुरद्वारे का संकल्प धरकर अपने पिता दशरथ के पास, जो अति प्रजापालक थे, आये और जैसे हंस सुन्दर कमल को ग्रहण करे वैसे ही उन्होंने उनका चरण पकड़ा । जैसे कमल के फूल के नीचे कोमल सरैयाँ होती हैं और उन तरैयों सहित कमल को हंस पकड़ता है वैसे ही दशरथजी की अँगुलियों को उन्होंने ग्रहण किया और बोले, हे पिता! मेरा चित्त तीर्थ और ठाकुरद्वारों के दर्शनों को चाहता है । आप आज्ञा कीजिये तो मैं दर्शन कर आऊँ । मैं तुम्हारा पुत्र हूँ । आगे मैंने कभी नहीं कहा यह प्रार्थना अब ही की है इससे यह वचन मेरा न फेरना, क्योंकि ऐसा त्रिलोकी में कोई नहीं है कि जिसका मनोरथ इस घर से सिद्ध न हुआ हो इससे मुझको भी कृपाकर आज्ञा दीजिये । इतना कह कर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जिस समय इस प्रकार रामजीने कहा तब वशिष्ठजी पास बैठे थे उन्होंने भी दशरथ से कहा, हे राजन् इनका चित्त उठा है रामजी को आज्ञा दो तीर्थ कर आवें और इनके साथ सेना, धन, मंत्री और ब्राह्मण भी दीजिये कि विधि पूर्वकदर्शन करें तब महाराज दशरथ ने शुभ मुहुर्त्त दिखाकर रामजी को आज्ञा दी । जब वे चलने लगे तो पिता और माता के चरणों में पड़े और सबको कण्ठ लगाकर रुदन करने लगे । इस प्रकार सबसे मिलकर लक्ष्मण आदि भाई, मन्त्री और वशिष्ठ आदि ब्राह्मण जो बिधि जाननेवाले थे बहुत सा धन और सेना साथ ली और दान पुण्य करते हुए गृह के बाहर निकले । उस समय वहाँ के लोगों और स्त्रियों ने रामजी के ऊपर फूलों और कलियों की माला की, जैसे बरफ बरसती है वैसी ही वर्षा की ओर रामजी की मूर्ति हृदय में धर ली । इसी प्रकार रामजी वहाँसे ब्राह्मणों और निर्धनों को दान देते गंगा, यमुना, सरस्वती आदि तीर्थों में विधिपूर्वक स्नानकर पृथ्वी के चारों ओर पर्यटन करते रहे । उत्तर-दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में दान किया और समुद्र के चारों ओर स्नान किया । सुमेरु और हिमालय पर्वत पर भी गये और शालग्राम, बद्री, केदार आदि में स्नान और दर्शन किये । ऐसे ही सब तीर्थस्नान, दान, तप, ध्यान और विधिसंयुक्त यात्रा करते करते एक वर्ष में अपने नगर में आये ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणेतीर्थयात्रावर्णनन्नाम द्वितीयसर्गः ॥२॥