श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Wednesday, September 8, 2010

पुरुषार्थ परम दैव है.....

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जीवन्मुक्ति और विदेह-मुक्ति में कुछ भेद नहीं है । जैसे जल स्थिर हैं तो भी जल है और तरंग है तो भी जल है वैसे ही जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कुछ भेद नहीं है । हे रामजी! जीवन्‌मुक्ति और विदेहमुक्ति का अनु भव तुमको प्रत्यक्ष नहीं भासता, क्योंकि स्वसंवेद है और उनमें जो भेद भासता है सो सम्यकदर्शी को भासता है ज्ञानवान् को भेद नहीं भासता । हे मननकर्त्ताओं में श्रेष्ठ रामजी! जैसे वायु स्पन्दरूप होती है तो भी वायु है और निस्स्पन्द होती है तो भी वायु है, निश्चय करके कुछ भेद नहीं पर और जीव को स्पन्द होती है तो भासती और निस्स्पन्द होती है तो नहीं भासती वैसे ही ज्ञानवान् पुरुष को जीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति में कुछ भेद नहीं, वह सदा अद्वैत निश्चयवाला और इच्छा से रहित है । जब जीव को उसका शरीर भासता है तब जीवन्मुक्ति कहते हैं और जब शरीर अदृश्य होता है तब विदेह मुक्ति कहते हैं । पर उसको दोनों तुल्य है । हे रामजी! अब प्रकृत प्रसंग को जो श्रवण का भूषण है सुनिये । जो कुछ सिद्ध होता है सो अपने पुरुषार्थ से सिद्ध होता है । पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता । लोग जो कहते हैं कि दैव करेगा सो होगा यह मूर्खता है । चन्द्रमा जो हृदय को शीतल और उल्लासकर्ता भासता है इसमें यह शीतलता पुरुषार्थ से हुई है । हे रामजी! जिस अर्थ की प्रार्थना और यत्न करे और उससे फिरे नहीं तो अवश्य पाता है । पुरुष प्रयत्न किसका नाम है सो सुनिये । सन्तजन और सत्य शास्त्र के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ (प्रयत्न) है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है । जिस निमित्त यत्न करता है सोई पाता है । एक जीव पुरुषार्थ (प्रयत्न) करके इन्द्र की पदवी पाकर त्रिलोकी का पति हो सिंहासन पर आरूढ़ हुआ है । हे रामचन्द्र! आत्मतत्त्व में जो चैतन्य संवित है सो संवेदन रूप होकर फुरती है और सोई अपने पुरुषार्थ से ब्रह्म पद को प्राप्त हुई है । इसलिए देखो जिसको कुछ सिद्धता प्राप्त हुई है सो अपने पुरुषार्थ से ही हुई है । केवल चैतन्य आत्मतत्व है । उसमें चित्त संवेदन स्पन्दरूप है । यह चित्त संवेदन ही अपने पुरुषार्थ से गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुरूपी होता है और पुरुषोत्तम कहाता है और यही चित्तसंवेदन अपने पुरुषार्थ से रुद्ररूप हो अर्द्धांग में पार्वती , मस्तक में चन्द्रमा और नीलकण्ठ परमशान्तिरूप को धारण करता है इससे जो कुछ सिद्ध होता है सो पुरुषार्थ से ही होता है । हे रामजी! पुरुषार्थ से सुमेरु का चूर्ण किया चाहे तो भी वह भी कर सकता है । यदि पूर्व दिन में दुष्कृत किया हो और अगले दिन में सुकृत करे तो दुष्कृत दूर हो जाता है । जो अपने हाथ से चरणामृत भी ले नहीं सकता वह यदि पुरुषार्थ करे तो वह पृथ्वी को खण्ड खण्ड करने को समर्थ होता है ।

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