हे रामजी! जब ‘अहं’ ‘त्वं’ आदि रात्रि विचाररूपी सूर्य से क्षीण हो जावेगी तब परमात्मा का प्रकाश साक्षात् होगा, भेदकल्पना नष्ट हो जावेगी और अनन्तब्रह्माण्ड में जो व्यापक आत्मतत्त्व है । वह प्रकाशित होगा । जैसे अपने विचार से जनक ने अहंकाररूपी वासना का त्याग किया है तैसे ही तुम भी विचार करके अहंकार-रूपी वासना का त्याग किया है तैसे ही तुम भी विचार करके अहंकाररूपी वासना का त्याग करो अहंकाररूपी मेघ जब नष्ट होगा और चित्ताकाश निर्मल होगा तब आत्मरूपी सूर्य प्रकाशित होगा । जब तक अहंकाररूपी मेघ आवरण है तबतक आत्मरूपी सूर्य नहीं भासता । विचाररूपी वायु से जब अहंकाररूपी मेघ नाश हो तब आत्मरूपी सूर्य प्रकट भासेगा । हे रामजी! ऐसे समझो कि मैं हूँ न कोई और है, न नास्ति है, न अस्ति है, जब ऐसी भावना दृढ़ होगी तब मन शान्त हो जावेगा और हेयोपादेय बुद्धि जो इष्ट पदार्थों मे होती है उसमें न डूबोगे । इष्ट अनिष्ट के ग्रहण त्याग में जो भावना होती है यही मन का रूप है और यही बन्धन का कारण है- इससे भिन्न बन्धन कोई नहीं । इससे तुम इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट में हेयो पादेय बुद्धि मत करो और दोनों के त्यागने से जो शेष रहे उसमें स्थित हो । इष्ट अनिष्ट की भावना उसकी की जाती है जिसको हेयोपादेय बुद्धि नहीं होती और जबतक हेयो पादेय बुद्धि क्षीण नहीं होती तबतक समता भाव नहीं उपजता । जैसे मेघ के नष्ट हुए बिना चन्द्रमा की चाँदनी नहीं भासती तैसे ही जबतक पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि है और मन लोलुप होता है तबतक समता उदय नहीं होती । जबतक युक्त अयुक्त लाभ अलाभ इच्छा नहीं मिटती तबतक शुद्ध समता और निरसता नहीं उपजती । एक ब्रह्मतत्त्व जो निरामयरूप और नानात्व से रहित है उसमें युक्त क्या और अयुक्त क्या? जब तक इच्छा- अनिच्छा और वाञ्छित-अवाञ्छित यह दोनों बातें स्थित हैं अर्थात् फुरते और क्षोभ करते हैं तबतक सौम्यताभाव नहीं होता । जो हेयोपादेय बुद्धि से रहित ज्ञानवान् है उस पुरुष को यह शक्ति आ प्राप्त होती है-जैसे राजा के अन्तःपुर में पटु (चतुर) रानी स्थित होती हैं । वह शक्ति यह है, भोगों में निरसता, देहाभिमान से रहित निर्भयता, नित्यता, समता, पूर्णआत्मा-दृष्टि, ज्ञाननिष्ठा, निरिच्छता, निरहंकारता आपको सदा अकर्त्ता जानना, इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता, निर्विकल्पता, सदा आनन्द- स्वरूप रहना, धैर्य से सदा एकरस रहना, स्वरूप से भिन्न वृत्ति न फुरना, सब जीवों से मैत्रीभाव, सत्यबुद्धि, निश्चयात्मकरूप से तुष्टता, मुदिता और मृदुभाषणा,इतनी शक्ति हेयोपादेय से रहित पुरुष को आ प्राप्त होती है । हे रामजी! संसार के पदार्थों की ओर जो चित्त धावता है उसको वैराग्य से उलटाके खैंचना-जैसे पुल से जल के वेग का निवारण होता है तैसे ही जगत् से रोककर मन को आत्मपद में लगाने से आत्मभाव प्रकाशता है । इससे हृदय से सब वासना का त्याग करो और बाहर से सब क्रिया में रहो । वेग चलो, श्वास लो और सर्वदा, सब प्रकार चेष्टा करो, पर सर्वदा सब प्रकार की वासना त्याग करो । संसाररूपी समुद्र में वासनारूपी जल है और चिन्तारूपी सिवार है, उस जल में तृष्णावान् रूपी मच्छ फँसे हैं । यह विचार जो तुमसे कहा है उस विचाररूपी शिला से बुद्धि को तीक्ष्ण करो और इस जाल को छेदो तब संसार से मुक्त होगे संसाररूपी वृक्ष का मूल बीज मन है । ये वचन जो कहे हैं-उनको हृदय में धरकर धैर्यवान हो तब आधि व्याधिदुःखों से मुक्त होगे । मन से मन को छेदो, जो बीती है उसका स्मरण न करो और भविष्यत् की चिन्ता न करो, क्योंकि वह असत्यरूप है और वर्तमान को भी असत्य जानके उसमें बिचरो । जब मन से संसार का विस्मरण होता है तब मन में फिर न फुरेगा । मन असत्यभाव जानके चलो, बैठो, श्वाश लो, निश्वास करो, उछलो, सोवो, सब चेष्टा करो परन्तु भीतर सब असत्यरूप जानो तब खेद न होगा । ‘अहं’ ‘मम’ रूपी मल का त्याग करो प्राप्ति में बिचरो अथवा राज आ प्राप्त हो उसमें बिचरो परन्तु भीतर से इसमें आस्था न हो । जैसे आकाश का सब पदार्थों में अन्वय है परन्तु किसी से स्पर्श नहीं करता, तै से ही बाहर कार्य करो परन्तु मन से किसी में बन्धायमान न हो तुम चेतनरूप अजन्मा महेश्वर पुरुष हो, तुम से भिन्न कुछ नहीं और सबमें व्याप रहे हो । जिस पुरुष को सदा यही निश्चय रहता है उसको संसार के पदार्थों चलायमान नहीं कर सकते और जिनको संसार में आसक्त भावना है और स्वरूप भूले हैं उनको संसार के पदार्थों से विकार उपजता है और हर्ष, शोक और भय खींचते हैं, उससे वे बाँधे हुए हैं । जो ज्ञानवान् पुरुष राग द्वेष से रहित हैं उनको लोहा, बट्टा, (ढेला) पाषाण और सुवर्ण सब एक समान है । संसार वासना के ही त्यागने का नाम मुक्ति है ।
वसिष्ठ जी कहते हैं- "जिसका अंतःकरण मुक्ति के लिए खूब लालायित हो, सत्कर्म करके खूब शुद्ध हो गया हो तथा ध्यान करके खूब एकाग्र हो गया हो उसे यह उपदेश सुनने मात्र से आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। जिन लोगों को इस ग्रंथ में, इस ज्ञान में प्रीति नहीं है, वे अपरिपक्व हैं। उनको चाहिए कि व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान, यज्ञ, होम, हवन आदि करें। इन्हें करके जब उनका अंतःकरण परिपक्व होगा, तब उनको इसमें रुचि होगी।
श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........
श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी
श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ
श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |
Saturday, October 23, 2010
वर्तमान को भी असत्य जानके उसमें बिचरो
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