श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Sunday, November 21, 2010

जिसका चित्त एक क्षण भी आत्मतत्त्व में स्थित होता है उसकी अत्यन्त समाधि है

हे साधो! जिनका नित्य प्रबुद्ध चित्त है वे जगत् के कार्य भी करते हैं पर आत्मतत्त्व में स्थित हैं तो वह सर्वदा समाधि में स्थित हैं और जो पद्मासन बाँधकर बैठते हैं और ब्रह्माञ्जली हाथ में रखते हैं पर चित्त आत्मपद में स्थित नहीं होता और विश्रान्ति नहीं पाते तो उनको समाधि कहाँ? वह समाधि नहीं कहती । हे भगवन्! परमार्थ तत्त्वबोध आशारूपी सब तृणों के जलानेवाली अग्नि है । ऐसी निराशरूपी जो समाधि वही समाधि है । तूष्णीम होने का नाम समाधि नहीं है । हे साधो! जिसका चित्त समाहित, नित्यतृप्त और सदा शान्तरूप है और जो यथा भूतार्थ है अर्थात् जिसे ज्यों का त्यों ज्ञान हुआ है और उसमें निश्चय है वह समाधि कहाती है, तूष्णीम् होने का नाम समाधि नहीं है, जिसके हृदय में संसाररूप सत्यता का क्षोभ नहीं है, जो निरहंकार है और अनउदय ही उदय है वह पुरुष समाधि में कहाता है । ऐसा जो बुद्धिमान है वह सुमेरु से भी अधिक स्थित है । हे साधो! जो पुरुष निश्चिन्त है, जिसका ग्रहण और त्याग बुद्धि निवृत्त हुई है जिसे पूर्ण आत्मतत्त्व ही भासता है वह व्यवहार भी करता दृष्ट आता है तो भी उसकी समाधि है । जिसका चित्त एक क्षण भी आत्मतत्त्व में स्थित होता है उसकी अत्यन्त समाधि है और क्षण-क्षण बढ़ती जाती है निवृत्त नहीं होती । जैसे अमृत के पान किये से उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है तैसे ही एक क्षण को भी समाधि बढ़ती ही जाती है । जैसे सूर्य के उदय हुए सब किसी को दिन भासता है तैसे ही ज्ञानवान् को सब आत्मतत्त्व भासता है-कदाचित् भिन्न नहीं भासता । जैसे नदी का प्रवाह किसी से रोका नहीं जाता तैसे ही ज्ञानवान् की आत्मदृष्टि किसी से रोकी नहीं जाती और जैसे काल की गति काल को एक क्षण भी विस्मरण नहीं होती तैसे ही ज्ञानवान् की आत्मदृष्टि विस्मरण नहीं होती । जैसे चलने से ठहरे पवन को अपना पवनभाव विस्मरण नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् को चिन्मात्र तत्त्व का विस्मरण नहीं होता और जैसे सत् शब्द बिना कोई पदार्थ सिद्ध नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् को आत्मा के सिवाय कोई पदार्थ नहीं भासता । जिस ओर ज्ञानवान् की दृष्टि जाती है उसे वहाँ अपना आप ही भासता है-जैसे उष्णता बिना अग्नि नहीं, शीतलता बिना बरफ नहीं और श्यामता बिना काजर नहीं होता तैसे आत्मा बिना जगत् नहीं होता । हे साधो! जिसको आत्मा से भिन्न पदार्थ कोई नहीं भासता उसको उत्थान कैसे हो? मैं सर्वदा बोधरूप, निर्मल और सर्वदा सर्वात्मा समाहितचित हूँ, इससे उत्थान मुझको कदाचित् नहीं होगा । आत्मा से भिन्न मुझको कोई नहीं भासता सब प्रकार आत्मतत्त्व ही मुझको भासता है । हे साधो! आत्मतत्त्व सर्वदा जानने योग्य है । सर्वदा और सब प्रकार आत्मा स्थित है, फिर समाधि और उत्थान कैसे हो? जिसको कार्य कारण में विभाग कलना नहीं फुरती और जो आत्मतत्त्व में ही स्थित है उसको समाहित असमाहित क्या कहिये? समाधि और उत्थान का वास्तव में कुछ भेद नहीं । आत्म तत्त्व सदा अपने आप में स्थित है, द्वैतभेद कुछ नहीं तो समाहित असमाहित क्या कहिये?

Monday, November 8, 2010

हे मन! तेरा होना दुःख का कारण है

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पूर्व में जैसे उद्दालक भूतों के समूह को विचार करके परमपद को प्राप्त हुआ है सो तुम सुनो । हे रामजी! जगत्‌रूपी जीर्णघर के वायव्यकोण में एक देश है जो पर्वत और तमालादि वृक्षों से पूर्ण है और महामणियों का स्थान है । उस स्थान में उद्दालक नाम एक बुद्धिमान् ब्राह्मण मान करने के योग्य विद्यमान था परन्तु अर्ध प्रबुद्ध था, क्योंकि परमपद को उसने न पाया था । वह ब्राह्मण यौवन अवस्था के पूर्व ही शुभेच्छा से शास्त्रोंक्त यम, नियम और तप को साधने लगा तब उसके चित्त में यह विचार उत्पन्नहुआ कि हे देव! जिसके पाने से फिर कुछ पाने योग्य न रहे , जिस पद में विश्राम पाने से फिर शोक न हो और जिसके पाने से फिर बन्धन न रहे ऐसा पद मुझको कब प्राप्त होगा? कब मैं मन के मनन भाव को त्यागकर विश्रान्तिमान् हूँगा-जैसे मेघ भ्रमने को त्यागकर पहाड़ के शिखर में विश्रान्ति करता है-और कब चित्त की दृश्यरूप वासना मिटेगी जैसे तरंग से रहित समुद्र शान्तमान् होता है तैसे ही कब मैं मन के संकल्प विकल्प से रहित शान्तिमान् हूँगा? तृष्णारूपी नदी को बोधरूपी बेड़ी और संत् संग और सत्‌शास्त्ररूपी मल्लाह से कब तरूँगा, चित्तरूपी हाथी जो अभिमानरूपी हाथी जो अभिमानरूपी मद से उन्मत्त है उसको विवेकरूपी अंकुश से कब मारूँगा और ज्ञानरूपी सूर्य से अज्ञानरूपी अन्धकार कब नष्ट करूँगा? हे देव! सब आरम्भों को त्यागकर मैं अलेप और अकर्ता कब होऊँगा? जैसे जल में कमल अलेप रहता है तैसे ही मुझको कर्म कब स्पर्श न करेंगे? मेरा परमार्थरूपी भास्वर वपु कब उदय होगा जिससे मैं जगत् की गति को देखकर हँसूँगा हृदय में सन्तोष पाऊँगा और पूर्णबोध विराट् आत्मा की नाईं होऊँगा? वह समय कब होगा कि मुझ जन्मों के अन्धे को ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होगा, जिससे मैं परमबोध पद को देखूँगा? वह समय कब होगा जब मेरा चित्तरूपी मेघ वासना रूपी वायु से रहित आत्मरूपी सुमेरु पर्वत में स्थित होकर शान्तमान् होगा? अज्ञान दशा कब जावेगी और ज्ञानदशा कब प्राप्त होगी? अब वह समय कब होगा कि मन और काया और प्रकृति को देख कर हँसूँगा? वह समय कब होगा जब जगत् के कर्मों को बालक की चेष्टावत् मिथ्या जानूँगा और जगत् मुझको सुषुप्ति की नाईं हो जावेगा । वह समय कब होगा जब मुझको पत्थर की शिलावत् निर्विकल्प समाधि लगेगी और शरीर रूपी वृक्ष में पक्षी आलय करेंगे और निस्संग होकर छाती पर आन बैठेंगे? हे देव! वह समय कब होगा जब इष्ट अनिष्ट विषय की प्राप्ति से मेरे चित्त की वृत्ति चलायमान न होगी और विराट की नाईं सर्वात्मा होऊँगा? वह समय कब होवेगा जब मेरा सम असम आकार शान्त हो जावेगा और सब अर्थों से निरिच्छितरूप मैं हो जाऊँगा? कब मैं उपशम को प्राप्त होऊँगा-जैसे मन्दराचल से रहित क्षीरसमुद्र शान्तिमान् होता है-और कब मैं अपना चेतन वपु पाकर शरीर को अशरीरवत् देखूँगा? कब मेरी पूर्ण चिन्मात्र वृत्ति होगी और कब मेरे भीतर बाहर की सब कलना शान्त हो जावेंगी और सम्पूर्ण चिन्मात्र ही का मुझे भान होगा? मैं ग्रहण त्याग से रहित कब संतोष पाऊँगा और अपने स्वप्रकाश में स्थित होकर संसाररूपी नदी के जरामरणरूपी तरंगों से कब रहित होऊँगा और अपने स्वभाव में कब स्थित होऊँगा? हे रामजी! ऐसे विचारक उद्दालक चित्त को ध्यान में लगाने लगा, परन्तु चित्तरूपी वानर दृश्य की ओर निकल जाये पर स्थित न हो । तब वह फिर ध्यान में लगावे और फिर वह भोगों की ओर निकल जावे । जैसे वानर नहीं ठहरता तैसे ही चित्त न ठहरे । जब उसने बाहर विषयों को त्यागकर चित्त को अन्तर्मुख किया तब भीतर जो दृष्टि आई तो भी विषयों को चिन्तने लगा, निर्विकल्प न हो और जब रोक रक्खे तब सुषुप्ति में लीन हो जावे । सुषुप्ति और लय जो निद्रा है उसही में चित्त रहे । तब वह वहाँ से उठकर और स्थान को चला-जैसे सूर्य सुमेरु की प्रदक्षिणा को चलाता है और गन्धमादन पर्वत की एक कन्दरा में स्थित हुआ जो फूलों से संयुक्त सुन्दर और पशु पक्षी मृगों से रहित एकान्त स्थान था और जो देवता को भी देखना कठिन था । वहाँ अत्यन्त प्रकाश भी न था और अत्यन्त तम भी न था, न अत्यन्त उष्ण था और न शीत जैसे मधुर कार्त्तिक मास होता है तैसे ही वह निर्भय एकान्त स्थान था । जैसे मोक्ष पदवी निर्भय एकान्तरूप होती है तैसे ही उस पर्वत में कुटी बना और उस कुटी में तमाल पर और कमलों का आसनकर और ऊपर मृगछाला बिछाकर वह बैठा और सब कामना का त्यागकिया । जैसे ब्रह्माजी जगत् को उपजाकर छोड़ बैठे तैसे ही वह सब कलना को त्याग बैठा और विचार करने लगा कि अरे मूर्ख मन! तू कहाँ जाता है, यह संसार मायामात्र है और इतने काल तू जगत् में भटकता रहा, पर कहीं तुझको शान्ति न हुई, वृथा धावता रहा । हे मूर्ख मन! उपशम को त्यागकर भोगों की ओर धावता है सो अमृत को त्यागकर विषका बीज बोता है, यह सब तेरी चेष्टा दुःखोंके निमित्त है । जैसे कुशवारी अपना घर बनाकर आप ही को बन्धन करती है तैसे ही तू भी आपको आप संकल्प उठाकर बन्धन करता है । अब तू संकल्प के संसरने को त्यागकर आत्मपद में स्थित हो कि तुझको शान्ति हो । हे मन जिह्वा के साथ मिलकर जो तू शब्द करता है वह दर्दुर के शब्दवत् व्यर्थ है । कानों के साथ मिलकर सुनता है तब शुभ अशुभ वाक्य ग्रहण करके मृग की नाईं नष्ट होता त्वचा के साथ मिलकर जो तू स्पर्श की इच्छा करता है सो हाथी की नाईं नष्ट होता है, रसना के स्वाद की इच्छा से मछली की नाईं नष्ट होता है और गन्ध लेने की इच्छा से भँवरे की नाईं नष्ट हो जावेगा । जैसे भँवरा सुगन्ध के निमित्त फूल में फँस मरता है तैसे तू फँस मरेगा और सुन्दर स्त्रियों की वाच्छा से पतंग की नाईं जल मरेगा । हे मूर्ख मन! जो एक इन्द्रिय का भी स्वाद लेते हैं वे नष्ट होते हैं तू तो पञ्चविषय का सेवनेवाला है क्या तेरा नाश न होगा ।इससे तू इनकी इच्छा त्याग कि तुझको शान्ति हो । जो इन भोगों की इच्छा न त्यागेगा तो मैं ही तुझको त्यागूँगा । तू तो मिथ्या असत्यरूप है तुझको मेरा क्या प्रयोजन है । विचार कर मैं तेरा त्याग करता हूँ । हे मूर्ख मन! जो तू देह में अहं अहं करता है सो तेरा अहं किस अर्थ का है । अंगुष्ठ से लेकर मस्तक पर्यन्त अहं वस्तु कुछ नहीं । यह शरीर तो अस्थि, माँस और रक्त का थैला है, यह तो अहंरूप नहीं और पोल आकाशरूप है । यह पञ्चतत्त्वों का जो शरीर बना है उसमें अहंरूप वस्तु तो कुछ नहीं है । हे मूर्ख मन! तू अहं अहं क्यों करता है? यह जो तू कहता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ मैं स्पर्श करता हूँ, मैं स्वाद लेता हूँ और इनके इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष से जलता है सो वृथा कष्ट पाता है । रूप को नेत्र ग्रहण करते हैं, नेत्र रूप से उत्पन्न हुए हैं और तेज का अंश उनमें स्थित है जो अपने विषय को ग्रहण करता है, इसके साथ मिलकर तू क्यों तपायमान होता है? शब्द आकाश में उत्पन्न हुआ है और आकाश का अंश श्रवण में स्थित है जो अपने गुण शब्द को ग्रहण करता है इसके साथ मिलकर तू क्यों रागद्वेष कर तपायमान होता है? स्पर्श इन्द्रिय वायु से उत्पन्न हुई है और वायु का अंश त्वचा में स्थित है वही स्पर्श को ग्रहण करता है, उससे मिलकर तू क्यों रागद्वेष से तपायमान होता है? रसना इन्द्रिय जल से उत्पन्न हुई है और जल का अंश जिह्वा है जो अग्रभाग में स्थित है वही रस ग्रहण करती है, इससे मिलकर तू क्यों वृथा तपाय मान होता है? और घ्राण इन्द्रिय गन्ध से उपजी है और पृथ्वी का अंश घ्राण में स्थित है वही गन्ध को ग्रहण करती है, उसमें मिलकर तू क्यों वृथा रागद्वेषवान् होता है? मूर्ख मन! इन्द्रियाँ तो अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं पर तू इनमें अभिमान करता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, मैं स्पर्श करता हूँ और रस लेता हूँ । यह इन्द्रियाँ तो सब आत्मभर हैं अर्थात् अपने विषय को ग्रहण करती हैं और के विषय को ग्रहण नहीं करती कि नेत्र देखते हैं श्रवण नहीं करते और कान सुनते हैं देखते नहीं इत्यादिक । सब इन्द्रियाँ अपना धर्म किसी को देती भी नहीं और न किसी का लेती हैं । वे अपने धर्म में स्थित हैं और विषय को ग्रहण कर इनको रागद्वेष कुछ नहीं होता । इनको ग्रहण करने की वासना भी कुछ नहीं होती और तू ऐसा मूर्ख है कि औरों के धर्म आपमें मानकर रागद्वेष से जलता है । जो तू भी राग द्वेष से रहित होकर चेष्टा करे तो तुझको दुःख कुछ न हो । जो वासना सहित कर्म करता है वह बन्धन का कारण होता है, वासना बिना कुछ दुःख नहीं होता । तू मूर्ख है जो विचार कर नहीं देखता इससे मैं तुझको त्याग करता हूँ । तेरे साथ मिल के मैं बड़े खेद पाता हूँ । जैसे भेड़िये के बालक को सिंह चूर्ण करता है तैसे ही तूने मुझको चूर्ण किया है । तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हुआ हूँ । अब तेरे साथ मेरा प्रयोजन कुछ नहीं, मैं तो निर्विकल्प शुद्ध चिदानन्द हूँ । जैसे महाकाशा घट से मिल कर घटाकाश होता हे तैसे ही तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हो गया हूँ । इस कारण मैं तेरा संग त्यागकर परम चिदाकाश को प्राप्त होऊँगा । मैं निर्विकार हूँ और अहं त्वं की कल्पना से रहित हूँ । तू क्यों अहं त्वं करता है? शरीर में व्यर्थ अहं करनेवाला और कोई नहीं तू ही चोर है । अब मैंने तुझको पकड़कर त्याग दिया है । तू तो अज्ञान से उपजा मिथ्या और असत्यरूप है जैसे बालक अपनी परछाहीं में वैताल जानकर आप भय पाता है तैसे ही तूने सबको दुःखी किया है । जब तेरा नाश होगा तब आनन्द होगा । तेरे उपजने से महादुःख है-जैसे कोई ऊँचे पर्वत से गिरके कूप में जा पड़े और कष्टवान हो तैसे ही तेरे संग से मैं आत्मपद से गिरा देह अभिमानरूपी गढ़े में रागद्वेषरूपी दुःख पाता था, पर अब तुझको त्यागकर मैं निरहंकारपद को प्राप्त हुआ हूँ । वह पद न प्रकाश है, न एक है, न दो है, न बड़ा है और न छोटा है, अहं त्वं आदि से रहित अचैत्य चिन्मात्र है । जरा मृत्यु रागद्वेष और भय सब तेरे संयोग से होते हैं । अब तेरे वियोग से मैं निर्विकार शुद्ध पद को प्राप्त होता हूँ । हे मन! तेरा होना दुःख का कारण है । जब तू निर्वाण हो जावेगा तब मैं ब्रह्मरूप होऊँगा । तेरे संग से मैं तुच्छ हुआ हूँ, जब तू निवृत्त होगा तब मैं शुद्ध होऊँगा-जैसे मेघ और कुहिरे के होने से आकाश मलीन भासता है पर जब वर्षा हो जाती है तब शुद्ध और निर्मल हो रहता है, तैसे ही तेरे निवृत्त हुए निर्लेप अपना आप आत्मा भासता है । हे चित्त! ये जो देह इन्द्रियादिक पदार्थ हैं सो भिन्न हैं, इनमें अहं वस्तु कुछ नहीं, इनको एक तूने ही इकट्ठी किया है । जैसे एक तागा अनेक मणियों को इकट्ठा करता है तैसे ही सबको इकट्ठा करके तू अहं अहं करता है । तू मिथ्या रागद्वेष करता है इससे तू शीघ्र ही सब इन्द्रियों को लेकर निर्वाण हो जिससे तेरी जय हो । 

Tuesday, November 2, 2010

जीना उनका श्रेष्ठ है जो आत्मपद के निमित्त यत्न करते हैं

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह माया संसारचक्र है उसका बड़ा तीक्ष्ण वेग है और सब अंगों को छेदनेवाला है, जिससे यह चक्र और इस भ्रम से छूटूँ वही उपाय कहिये । 
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो माया मय संसारचक्र है उसका नाभिस्थान चित्त है । जब चित्त वश हो तब संसारचक्र का वेग रोका जावे, और किसी प्रकार नहीं रोका जाता । हे रामजी! इस वार्त्ता को तू भली प्रकार जानता है । हे निष्पाप! जब चक्र की नाभि रोकी जाती है तब चक्र स्थित हो जाता है-रोके बिना स्थित नहीं होता । संसाररूपी चक्र की चित्त्‌रूपी नाभि को जब रोकते हैं तब यह चक्र भी स्थित हो जाता है-रोके बिना यह भी स्थित नहीं होता । जब चित्त को स्थित करोगे तब जगत्‌भ्रम निवृत्त हो जावेगा और जब चित्त,स्थित होता है तब परब्रह्म प्राप्त होता है । तब जो कुछ करना था सो किया होता है और कृतकृत्य होता है और जो कुछ प्राप्त होना था सो प्राप्त होता है-फिर कुछ पाना नहीं रहता । इससे जो कुछ तप, ध्यान, तीर्थ, दान आदिक उपाय हैं उन सबको त्यागकर चित्त के स्थित करने का उपाय करो । सन्तों के संग और ब्रह्मविद् शास्त्रों के विचार से चित्त आत्मपद में स्थित होगा । जो कुछ सन्तों और शास्त्रों ने कहा है उसका बारम्बार अभ्यास करना और संसार को मृगतृष्णा के जल और स्वप्नवत् जानकर इससे वैराग्य करना । इन दोनों उपायों से चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी और किसी उपाय से आत्मपद की प्राप्ति न होवेगी । हे रामजी! बोलने चालने का वर्जन नहीं, बोलिये, दान दीजिये अथवा लीजिये परन्तु भीतर चित्त को मत लगाओ इनका साक्षी जानने वाला जो अनुभव आकाश है उसकी ओर वृत्ति हो । युद्ध करना हो तो भी करिये परन्तु वृत्ति साक्षी ही की ओर हो और उसी को अपना रूप जानिये और स्थित होइये । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ये जो पाँच विषय इन्द्रियों के हैं इनको अंगीकार कीजिये परन्तु इनके जाननेवाले साक्षी में स्थित रहिये । तेरा निजस्वरूप वही चिदाकाश है, जब उसका अभ्यास बारम्बार करियेगा तब चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी । हे रामजी! जब तक चित्त आत्मपद में स्थित नहीं होता तब तक जगत्‌भ्रम भी निवृत्त नहीं होता । इस चित्त के संयोग से चेतन का नाम जीव है । जैसे घट के संयोग से आकाश को घटाकाश कहते हैं पर जब घट टूट जाता है तब महाकाश ही रहता है, तैसे ही जब चित्त का नाश होगा तब यह जीव चिदाकाश ही होगा । यह जगत् भी चित्त में स्थित है, चित्त के अभाव हुए जगत्भ्रम शान्त हो जावेगा । हे रामजी! जब तक चित्त है तब तक संसार भी है, जैसे जब तक मेघ है तब तक बूँदे भी हैं और जब मेघ नष्ट हो जावेगा तब बूँदें भी न रहेंगी । जैसे जब तक चन्द्रमा की किरणें शीतल हैं तब तक चन्द्रमा के मण्डल में तुषार है तैसे ही जब तक चित्त है तब तक संसारभ्रम है ।जैसे माँस का स्थान श्मशान होता है और वहाँ पक्षी भी होते और ठौर इकट्ठे नहीं होते, तैसे ही जहाँ चित्त है वहाँ रागद्वेषादिक विचार भी होते हैं और जहाँ चित्त का अभाव है वहाँ विकार का भी अभाव है । हे रामजी! जैसे पिशाच आदिक की चेष्टा रात्रि में होती है, दिन में नहीं होती, तैसे ही राग, द्वेष, भय, इच्छा आदिक विकार चित्त में होते हैं । जहाँ चित्त नहीं वहाँ विकार भी नहीं-जैसे अग्नि बिना उष्णता नहीं होती,शीतलता बिना बरफ नहीं होती, सूर्य बिना प्रकाश नहीं होता और जल बिना तरंग नहीं होते तैसे ही चित्त बिना जगत्‌भ्रम नहीं होता । हे रामजी! शान्ति भी इसी का नाम है और शिवता भी वही है, सर्वज्ञता भी वही है जो चित्त नष्ट हो, आत्मा भी वही है और तृप्तता भी वही है पर जो चित्त नष्ट नहीं हुआ तो इतने पदों में कोई भी नहीं है । हे रामजी! चित्त से रहित चेतन चैतन्य कहाता है और अमनशक्ति भी वही है, जबतक सब कलना से रहित बोध नहीं होता तबतक नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और जब वस्तु का बोध हुआ तब एक अद्वैत आत्मसत्ता भासती है । हे रामजी! ज्ञानसंवित् की ओर वृत्ति रखना, जगत् की ओर न रखना और जाग्रत की ओर न जाना । जाग्रत के जाननेवाले की ओर जाना स्वप्न और सुषुप्ति की ओर न जाना । भीतर के जाननेवाली जो साक्षी सत्ता है उसकी ओर वृत्ति रखना ही चित्त के स्थित करने का परम उपाय है । सन्तों के संग और शास्त्रों से निर्णय किये अर्थ का जब अभ्यास हो तब चित्त नष्ट हो और जो अभ्यास न हो तो भी सन्तों का संग और सत्‌शास्त्रों को सुन कर बल कीजिये तो सहज ही चमत्कार हो आवेगा मन को मन से मथिये तो ज्ञानरूपी अग्नि निकलेगी जो आशारूपी फाँसी को जला डालेगी । जबतक चित्त आत्मपद से विमुख है तबतक संसारभ्रम देखता है पर जब आत्मपद में स्थित होता है तब सब क्षोभ मिट जाते हैं । जब तुमको आत्मपद का साक्षात्कार होगा तब कालकूट विष भी अमृत समान हो जावेगा और विष का जो मारना धर्म है सो न रहेगा । जीव जब अपने स्वभाव में स्थित होता है तब संसार का कारण मोह मिट जाता है और जब निर्मल निरंश आत्मसंवित् से गिरता है तब संसार का कारण मोह आन प्राप्त होता है । जब निरंश निर्मल आत्मसंवित् में स्थित होता है तब संसारसमुद्र से तर जाता है । जितने तेजस्वी बलवान् हैं उन सबों से तत्त्ववेत्ता उत्तम हैं, उसके आगे सब लघु हो जाते हैं और उस पुरुष को संसार के किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि उसका चित्त सत्यपद को प्राप्त होता है । इससे चित्त को स्थित करो तब वर्तमानकाल भी भविष्यत्काल की नाईं हो जावेगा और जैसे भविष्यत्काल का रागद्वेष नहीं स्पर्श करता तैसे ही वर्तमान काल का रागद्वेष भी स्पर्श न करेगा । हे रामजी! आत्मा परम आनन्दरूप है, उसके पाने से विष भी अमृत के समान हो जाता है । जिस पुरुष को आत्मपद में स्थित हुई है वह सबसे उत्तम है जैसे सुमेरु पर्वत के निकट हाथी तुच्छ भासता है तैसे ही उसके निकट त्रिलोकी के पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं । निकट त्रिलोकी के पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं वह ऐसे दिव्य तेज को प्राप्त होता है जिसको सूर्य भी नहीं प्रकाश कर सकता । वह परम प्रकाश रूप सब कलना से रहित अद्वैत तत्त्व है । हे रामजी! उस आत्मतत्त्व में स्थित हो रहो । जिस पुरुष ने ऐसे स्वरूप को पाया है उसने सब कुछ पाया है और जिसने ऐसे स्वरूप को नहीं पाया उसने कुछ नहीं पाया । ज्ञानवान् को देखकर हमको ज्ञान की वार्ता करते कुछ लज्जा नहीं आती और जो उस ज्ञान से विमुख है यद्यपि वह महाबाहु हो तो भी गर्दभवत् है । जो बड़े ऐश्वर्य से सम्पन्न है और आत्मपद से विमुख है उसको तू विष्ठा के कीट से भी नीच जान । जीना उनका श्रेष्ठ है जो आत्मपद के निमित्त यत्न करते हैं और जीना उनका वृथा है जो संसार के निमित्त यत्न करते हैं । वे देखनेमात्र तो चेतन हैं परन्तु शव की नाईं हैं । जो तत्त्ववेत्ता हुए हैं वे अपने प्रकाश से प्रकाशते हैं और जिनको शरीर में अभिमान है वे मृतक समान हैं । हे रामजी! इस जीव को चित्त ने दीन किया है । ज्यों ज्यों चित्त बड़ा होता है त्यों त्यों इसको दुःख होता है और जिसका चित्त क्षीण हुआ है उसका कल्याण हुआ है । जब आत्मभाव अनात्म में दृढ़ होता है और भोगों की तृष्णा होती है तब चित्त बड़ा हो जाता है और आत्मपद से दूर पड़ता है । जैसे बड़े मेघ के आवरण से सूर्य नहीं भासता तैसे ही अनात्म अभिमान अभिमान से आत्मा नहीं भासता । जब भोगों की तृष्णा निवृत्त हो जाती है तब चित्त क्षीण हो जाता है । जैसे वसन्त ऋतु के गये से पत्र कृश हो जाते हैं तैसे ही भोग वासना के अभाव से चित्त कृश हो जाता है । हे रामजी! चित्तरूपी सर्प दुर्वासनारूपी दुर्गन्ध, भोगरूपी वायु और शरीरे में दृढ़ आस्थारूपी मृत्तिका स्थान से बड़ा हो जाता है, और उन पदार्थों से जब बड़ा हुआ तब मोहरूपी विष से जीव को मारता है । हे रामजी! ऐसे दुष्टरूपी सर्प को जब मारे तब कल्याण हो । देह में जो आत्म अभिमान हो गया है, भोगों की तृष्णा फुरती है और मोह रूपी विष चढ़ गया है, इससे यदि विचाररूपी गरुड़मन्त्र का चिन्तन करता रहे तो विष उतर जावे इसके सिवाय और उपाय विष उतरने का कोई नहीं । हे रामजी! अनात्मा में आत्माभिमान और पुत्र, दारा आदिक में ममत्व से चित्त बड़ा हो जाता है और अहंकाररूपी विकार, ममतारूपी कीड़ा और यह मेरा इत्यादि भावना से चित्त कठिन हो जाता है । चित्तरुपी विष का वृक्ष है जो देहरूपी भूमि पर लगा है, संकल्प विकल्प इसके टास हैं, दुर्वासनारूपी पत्र हैं और सुखदुःख आधिव्याधि मृत्युरूपी इसके फल हैं, अहंकाररूपी कर्म जल है उसके सींचने से बढ़ता है और काम भोग आदि पुष्प हैं। चिन्तारूपी बड़ी बेलि को जब विचार और वैराग्यरूपी कुठार से काटे तब शान्ति हो- अन्यथा शांति न होगी । हे रामजी! चित्तरूपी एक हाथी है उसने शरीररूपी तालाब में स्थित होकर शुभ वासनारूपी जल को मलीन कर डाला है और धर्म, सन्तोष, वैराग्यरूपी कमल को तृष्णारूपी सूँड़ से तोड़ डाला है । उसको तुम आत्मविचाररूपी नेत्रों से देख नखों से छेदो । हे रामजी! जैसे कौवा अपवित्र पदार्थों को भोजन करके सर्वदा काँ काँ करता है तैसे ही चित्त देहरूपी अपवित्र गृह में बैठा सर्वदा भोगों की ओर धावता है, उसके रस को ग्रहण करता है और मौन कभी नहीं रहता । दुर्वासना से वह काक की नाईं कृष्णरूप है-जैसे काक के एक ही नेत्र होता है तैसे ही चित्त एक विषयों की ओर धावता है । ऐसे अमंगलरूपी कौवे को विचाररूपी धनुष से मारो तब सुखी होगे । चित्त रूपी चील पखेरु है जो भोगरूपी माँस के निमित्त सब ओर भ्रमता है । जहाँ अमंगलरूपी चील आती है वहाँ से विभूति का अभाव हो जाता है । वह अभिमानरूपी माँस की ओर ऊँची होकर देखती है और नम्र नहीं होती । ऐसा अमंगलरूपी चित्त चील है उसको जब नाश करो तब शान्तिमान् होगे । जैसे पिशाच जिसको लगता है वह खेदवान् होता है और शब्द करता है तैसे ही इसको चित्ररूपी पिशाच लगा है और तृष्णारूपी पिशाचिनी के साथ शब्द करता है उसको निकालो जो आत्मा से भिन्न अभिमान करता है । ऐसे चित्तरूपी पिशाच को वैराग्य रूपी मन्त्र से दूर करो तब स्वभावसत्ता को प्राप्त होगे । यह चित्तरूपी वानर महा चञ्चल है और सदा भटकता रहता है, कभी किसी पदार्थ में धावता है-जैसे वानर जिस वृक्ष पर बैठता है उसको ठहरने नहीं देता । हे रामजी! चित्तरूपी रस्सी से सम्पूर्ण जगत्‌ कर्ता, कर्म, क्रियारूपी गाँठ करके बँधा है । जैसे एक जंजीर के साथ अनेक बँधते हैं और एक तागे के साथ अनेक दाने पिरोये जाते हैं तैसे ही एक चित्त से सब देहधारी बाँधे हैं । उन रस्सी को असंग शस्त्र से काटे तब सुखी हो । रामजी! चित्तरूपी अजगर सर्प भोगों की तृष्णारूपी बिष से पूर्ण है और उसने फुँकार के साथ बड़े-बड़े लोक जलाये हैं और शम, दम, धैर्यरूपी सब कमल जल गये हैं । इस दुष्ट को और कोई नहीं मार सकता, जब विचाररूपी गरुड़ उपजे तब इसको नष्ट करे और जब चित्तरूपी सर्प नष्ट हो तब आत्मरूपी निधि प्राप्त होगी हे रामजी! यह चित्त शस्त्रों से काटा नहीं जाता, न अग्नि से जलता है और न किसी दूसरे उपाय से नाश होता है, केवल साधु के संग और सत्‌शास्त्रों के विचार और अभ्यास से नाश होता है । हे रामजी! यह चित्तरूपी गढ़े का मेघ बड़ा दुःखदायक है, भोगों की तृष्णारूपी बिजली इसमें चमकती है और जहाँ वर्षा इसकी होती है वहाँ बोधरूपी क्षेत्र और शमदमरूपी कमलों को नाश करती है । जब विचाररूपी मन्त्र हो तब शान्त हो । हे रामजी! चित्त की चपलता को असंकल्प से त्यागो । जैसे ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र छिदता है तैसे ही मन से मन को छेदो अर्थात् अन्तर्मुख हो । जब तेरा चित्तरुपी वानर स्थित होगा तब शरीररूपी वृक्ष क्षोभ से रहित होगा । शुद्ध बोध से मन को जीतो और यह जगत् जो तृण से भी तुच्छ है उससे पार हो जाओ ।