श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Tuesday, November 2, 2010

जीना उनका श्रेष्ठ है जो आत्मपद के निमित्त यत्न करते हैं

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह माया संसारचक्र है उसका बड़ा तीक्ष्ण वेग है और सब अंगों को छेदनेवाला है, जिससे यह चक्र और इस भ्रम से छूटूँ वही उपाय कहिये । 
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो माया मय संसारचक्र है उसका नाभिस्थान चित्त है । जब चित्त वश हो तब संसारचक्र का वेग रोका जावे, और किसी प्रकार नहीं रोका जाता । हे रामजी! इस वार्त्ता को तू भली प्रकार जानता है । हे निष्पाप! जब चक्र की नाभि रोकी जाती है तब चक्र स्थित हो जाता है-रोके बिना स्थित नहीं होता । संसाररूपी चक्र की चित्त्‌रूपी नाभि को जब रोकते हैं तब यह चक्र भी स्थित हो जाता है-रोके बिना यह भी स्थित नहीं होता । जब चित्त को स्थित करोगे तब जगत्‌भ्रम निवृत्त हो जावेगा और जब चित्त,स्थित होता है तब परब्रह्म प्राप्त होता है । तब जो कुछ करना था सो किया होता है और कृतकृत्य होता है और जो कुछ प्राप्त होना था सो प्राप्त होता है-फिर कुछ पाना नहीं रहता । इससे जो कुछ तप, ध्यान, तीर्थ, दान आदिक उपाय हैं उन सबको त्यागकर चित्त के स्थित करने का उपाय करो । सन्तों के संग और ब्रह्मविद् शास्त्रों के विचार से चित्त आत्मपद में स्थित होगा । जो कुछ सन्तों और शास्त्रों ने कहा है उसका बारम्बार अभ्यास करना और संसार को मृगतृष्णा के जल और स्वप्नवत् जानकर इससे वैराग्य करना । इन दोनों उपायों से चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी और किसी उपाय से आत्मपद की प्राप्ति न होवेगी । हे रामजी! बोलने चालने का वर्जन नहीं, बोलिये, दान दीजिये अथवा लीजिये परन्तु भीतर चित्त को मत लगाओ इनका साक्षी जानने वाला जो अनुभव आकाश है उसकी ओर वृत्ति हो । युद्ध करना हो तो भी करिये परन्तु वृत्ति साक्षी ही की ओर हो और उसी को अपना रूप जानिये और स्थित होइये । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ये जो पाँच विषय इन्द्रियों के हैं इनको अंगीकार कीजिये परन्तु इनके जाननेवाले साक्षी में स्थित रहिये । तेरा निजस्वरूप वही चिदाकाश है, जब उसका अभ्यास बारम्बार करियेगा तब चित्त स्थित होगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी । हे रामजी! जब तक चित्त आत्मपद में स्थित नहीं होता तब तक जगत्‌भ्रम भी निवृत्त नहीं होता । इस चित्त के संयोग से चेतन का नाम जीव है । जैसे घट के संयोग से आकाश को घटाकाश कहते हैं पर जब घट टूट जाता है तब महाकाश ही रहता है, तैसे ही जब चित्त का नाश होगा तब यह जीव चिदाकाश ही होगा । यह जगत् भी चित्त में स्थित है, चित्त के अभाव हुए जगत्भ्रम शान्त हो जावेगा । हे रामजी! जब तक चित्त है तब तक संसार भी है, जैसे जब तक मेघ है तब तक बूँदे भी हैं और जब मेघ नष्ट हो जावेगा तब बूँदें भी न रहेंगी । जैसे जब तक चन्द्रमा की किरणें शीतल हैं तब तक चन्द्रमा के मण्डल में तुषार है तैसे ही जब तक चित्त है तब तक संसारभ्रम है ।जैसे माँस का स्थान श्मशान होता है और वहाँ पक्षी भी होते और ठौर इकट्ठे नहीं होते, तैसे ही जहाँ चित्त है वहाँ रागद्वेषादिक विचार भी होते हैं और जहाँ चित्त का अभाव है वहाँ विकार का भी अभाव है । हे रामजी! जैसे पिशाच आदिक की चेष्टा रात्रि में होती है, दिन में नहीं होती, तैसे ही राग, द्वेष, भय, इच्छा आदिक विकार चित्त में होते हैं । जहाँ चित्त नहीं वहाँ विकार भी नहीं-जैसे अग्नि बिना उष्णता नहीं होती,शीतलता बिना बरफ नहीं होती, सूर्य बिना प्रकाश नहीं होता और जल बिना तरंग नहीं होते तैसे ही चित्त बिना जगत्‌भ्रम नहीं होता । हे रामजी! शान्ति भी इसी का नाम है और शिवता भी वही है, सर्वज्ञता भी वही है जो चित्त नष्ट हो, आत्मा भी वही है और तृप्तता भी वही है पर जो चित्त नष्ट नहीं हुआ तो इतने पदों में कोई भी नहीं है । हे रामजी! चित्त से रहित चेतन चैतन्य कहाता है और अमनशक्ति भी वही है, जबतक सब कलना से रहित बोध नहीं होता तबतक नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और जब वस्तु का बोध हुआ तब एक अद्वैत आत्मसत्ता भासती है । हे रामजी! ज्ञानसंवित् की ओर वृत्ति रखना, जगत् की ओर न रखना और जाग्रत की ओर न जाना । जाग्रत के जाननेवाले की ओर जाना स्वप्न और सुषुप्ति की ओर न जाना । भीतर के जाननेवाली जो साक्षी सत्ता है उसकी ओर वृत्ति रखना ही चित्त के स्थित करने का परम उपाय है । सन्तों के संग और शास्त्रों से निर्णय किये अर्थ का जब अभ्यास हो तब चित्त नष्ट हो और जो अभ्यास न हो तो भी सन्तों का संग और सत्‌शास्त्रों को सुन कर बल कीजिये तो सहज ही चमत्कार हो आवेगा मन को मन से मथिये तो ज्ञानरूपी अग्नि निकलेगी जो आशारूपी फाँसी को जला डालेगी । जबतक चित्त आत्मपद से विमुख है तबतक संसारभ्रम देखता है पर जब आत्मपद में स्थित होता है तब सब क्षोभ मिट जाते हैं । जब तुमको आत्मपद का साक्षात्कार होगा तब कालकूट विष भी अमृत समान हो जावेगा और विष का जो मारना धर्म है सो न रहेगा । जीव जब अपने स्वभाव में स्थित होता है तब संसार का कारण मोह मिट जाता है और जब निर्मल निरंश आत्मसंवित् से गिरता है तब संसार का कारण मोह आन प्राप्त होता है । जब निरंश निर्मल आत्मसंवित् में स्थित होता है तब संसारसमुद्र से तर जाता है । जितने तेजस्वी बलवान् हैं उन सबों से तत्त्ववेत्ता उत्तम हैं, उसके आगे सब लघु हो जाते हैं और उस पुरुष को संसार के किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि उसका चित्त सत्यपद को प्राप्त होता है । इससे चित्त को स्थित करो तब वर्तमानकाल भी भविष्यत्काल की नाईं हो जावेगा और जैसे भविष्यत्काल का रागद्वेष नहीं स्पर्श करता तैसे ही वर्तमान काल का रागद्वेष भी स्पर्श न करेगा । हे रामजी! आत्मा परम आनन्दरूप है, उसके पाने से विष भी अमृत के समान हो जाता है । जिस पुरुष को आत्मपद में स्थित हुई है वह सबसे उत्तम है जैसे सुमेरु पर्वत के निकट हाथी तुच्छ भासता है तैसे ही उसके निकट त्रिलोकी के पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं । निकट त्रिलोकी के पदार्थ सब तुच्छ भासते हैं वह ऐसे दिव्य तेज को प्राप्त होता है जिसको सूर्य भी नहीं प्रकाश कर सकता । वह परम प्रकाश रूप सब कलना से रहित अद्वैत तत्त्व है । हे रामजी! उस आत्मतत्त्व में स्थित हो रहो । जिस पुरुष ने ऐसे स्वरूप को पाया है उसने सब कुछ पाया है और जिसने ऐसे स्वरूप को नहीं पाया उसने कुछ नहीं पाया । ज्ञानवान् को देखकर हमको ज्ञान की वार्ता करते कुछ लज्जा नहीं आती और जो उस ज्ञान से विमुख है यद्यपि वह महाबाहु हो तो भी गर्दभवत् है । जो बड़े ऐश्वर्य से सम्पन्न है और आत्मपद से विमुख है उसको तू विष्ठा के कीट से भी नीच जान । जीना उनका श्रेष्ठ है जो आत्मपद के निमित्त यत्न करते हैं और जीना उनका वृथा है जो संसार के निमित्त यत्न करते हैं । वे देखनेमात्र तो चेतन हैं परन्तु शव की नाईं हैं । जो तत्त्ववेत्ता हुए हैं वे अपने प्रकाश से प्रकाशते हैं और जिनको शरीर में अभिमान है वे मृतक समान हैं । हे रामजी! इस जीव को चित्त ने दीन किया है । ज्यों ज्यों चित्त बड़ा होता है त्यों त्यों इसको दुःख होता है और जिसका चित्त क्षीण हुआ है उसका कल्याण हुआ है । जब आत्मभाव अनात्म में दृढ़ होता है और भोगों की तृष्णा होती है तब चित्त बड़ा हो जाता है और आत्मपद से दूर पड़ता है । जैसे बड़े मेघ के आवरण से सूर्य नहीं भासता तैसे ही अनात्म अभिमान अभिमान से आत्मा नहीं भासता । जब भोगों की तृष्णा निवृत्त हो जाती है तब चित्त क्षीण हो जाता है । जैसे वसन्त ऋतु के गये से पत्र कृश हो जाते हैं तैसे ही भोग वासना के अभाव से चित्त कृश हो जाता है । हे रामजी! चित्तरूपी सर्प दुर्वासनारूपी दुर्गन्ध, भोगरूपी वायु और शरीरे में दृढ़ आस्थारूपी मृत्तिका स्थान से बड़ा हो जाता है, और उन पदार्थों से जब बड़ा हुआ तब मोहरूपी विष से जीव को मारता है । हे रामजी! ऐसे दुष्टरूपी सर्प को जब मारे तब कल्याण हो । देह में जो आत्म अभिमान हो गया है, भोगों की तृष्णा फुरती है और मोह रूपी विष चढ़ गया है, इससे यदि विचाररूपी गरुड़मन्त्र का चिन्तन करता रहे तो विष उतर जावे इसके सिवाय और उपाय विष उतरने का कोई नहीं । हे रामजी! अनात्मा में आत्माभिमान और पुत्र, दारा आदिक में ममत्व से चित्त बड़ा हो जाता है और अहंकाररूपी विकार, ममतारूपी कीड़ा और यह मेरा इत्यादि भावना से चित्त कठिन हो जाता है । चित्तरुपी विष का वृक्ष है जो देहरूपी भूमि पर लगा है, संकल्प विकल्प इसके टास हैं, दुर्वासनारूपी पत्र हैं और सुखदुःख आधिव्याधि मृत्युरूपी इसके फल हैं, अहंकाररूपी कर्म जल है उसके सींचने से बढ़ता है और काम भोग आदि पुष्प हैं। चिन्तारूपी बड़ी बेलि को जब विचार और वैराग्यरूपी कुठार से काटे तब शान्ति हो- अन्यथा शांति न होगी । हे रामजी! चित्तरूपी एक हाथी है उसने शरीररूपी तालाब में स्थित होकर शुभ वासनारूपी जल को मलीन कर डाला है और धर्म, सन्तोष, वैराग्यरूपी कमल को तृष्णारूपी सूँड़ से तोड़ डाला है । उसको तुम आत्मविचाररूपी नेत्रों से देख नखों से छेदो । हे रामजी! जैसे कौवा अपवित्र पदार्थों को भोजन करके सर्वदा काँ काँ करता है तैसे ही चित्त देहरूपी अपवित्र गृह में बैठा सर्वदा भोगों की ओर धावता है, उसके रस को ग्रहण करता है और मौन कभी नहीं रहता । दुर्वासना से वह काक की नाईं कृष्णरूप है-जैसे काक के एक ही नेत्र होता है तैसे ही चित्त एक विषयों की ओर धावता है । ऐसे अमंगलरूपी कौवे को विचाररूपी धनुष से मारो तब सुखी होगे । चित्त रूपी चील पखेरु है जो भोगरूपी माँस के निमित्त सब ओर भ्रमता है । जहाँ अमंगलरूपी चील आती है वहाँ से विभूति का अभाव हो जाता है । वह अभिमानरूपी माँस की ओर ऊँची होकर देखती है और नम्र नहीं होती । ऐसा अमंगलरूपी चित्त चील है उसको जब नाश करो तब शान्तिमान् होगे । जैसे पिशाच जिसको लगता है वह खेदवान् होता है और शब्द करता है तैसे ही इसको चित्ररूपी पिशाच लगा है और तृष्णारूपी पिशाचिनी के साथ शब्द करता है उसको निकालो जो आत्मा से भिन्न अभिमान करता है । ऐसे चित्तरूपी पिशाच को वैराग्य रूपी मन्त्र से दूर करो तब स्वभावसत्ता को प्राप्त होगे । यह चित्तरूपी वानर महा चञ्चल है और सदा भटकता रहता है, कभी किसी पदार्थ में धावता है-जैसे वानर जिस वृक्ष पर बैठता है उसको ठहरने नहीं देता । हे रामजी! चित्तरूपी रस्सी से सम्पूर्ण जगत्‌ कर्ता, कर्म, क्रियारूपी गाँठ करके बँधा है । जैसे एक जंजीर के साथ अनेक बँधते हैं और एक तागे के साथ अनेक दाने पिरोये जाते हैं तैसे ही एक चित्त से सब देहधारी बाँधे हैं । उन रस्सी को असंग शस्त्र से काटे तब सुखी हो । रामजी! चित्तरूपी अजगर सर्प भोगों की तृष्णारूपी बिष से पूर्ण है और उसने फुँकार के साथ बड़े-बड़े लोक जलाये हैं और शम, दम, धैर्यरूपी सब कमल जल गये हैं । इस दुष्ट को और कोई नहीं मार सकता, जब विचाररूपी गरुड़ उपजे तब इसको नष्ट करे और जब चित्तरूपी सर्प नष्ट हो तब आत्मरूपी निधि प्राप्त होगी हे रामजी! यह चित्त शस्त्रों से काटा नहीं जाता, न अग्नि से जलता है और न किसी दूसरे उपाय से नाश होता है, केवल साधु के संग और सत्‌शास्त्रों के विचार और अभ्यास से नाश होता है । हे रामजी! यह चित्तरूपी गढ़े का मेघ बड़ा दुःखदायक है, भोगों की तृष्णारूपी बिजली इसमें चमकती है और जहाँ वर्षा इसकी होती है वहाँ बोधरूपी क्षेत्र और शमदमरूपी कमलों को नाश करती है । जब विचाररूपी मन्त्र हो तब शान्त हो । हे रामजी! चित्त की चपलता को असंकल्प से त्यागो । जैसे ब्रह्मास्त्र से ब्रह्मास्त्र छिदता है तैसे ही मन से मन को छेदो अर्थात् अन्तर्मुख हो । जब तेरा चित्तरुपी वानर स्थित होगा तब शरीररूपी वृक्ष क्षोभ से रहित होगा । शुद्ध बोध से मन को जीतो और यह जगत् जो तृण से भी तुच्छ है उससे पार हो जाओ । 

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