श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Monday, November 8, 2010

हे मन! तेरा होना दुःख का कारण है

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पूर्व में जैसे उद्दालक भूतों के समूह को विचार करके परमपद को प्राप्त हुआ है सो तुम सुनो । हे रामजी! जगत्‌रूपी जीर्णघर के वायव्यकोण में एक देश है जो पर्वत और तमालादि वृक्षों से पूर्ण है और महामणियों का स्थान है । उस स्थान में उद्दालक नाम एक बुद्धिमान् ब्राह्मण मान करने के योग्य विद्यमान था परन्तु अर्ध प्रबुद्ध था, क्योंकि परमपद को उसने न पाया था । वह ब्राह्मण यौवन अवस्था के पूर्व ही शुभेच्छा से शास्त्रोंक्त यम, नियम और तप को साधने लगा तब उसके चित्त में यह विचार उत्पन्नहुआ कि हे देव! जिसके पाने से फिर कुछ पाने योग्य न रहे , जिस पद में विश्राम पाने से फिर शोक न हो और जिसके पाने से फिर बन्धन न रहे ऐसा पद मुझको कब प्राप्त होगा? कब मैं मन के मनन भाव को त्यागकर विश्रान्तिमान् हूँगा-जैसे मेघ भ्रमने को त्यागकर पहाड़ के शिखर में विश्रान्ति करता है-और कब चित्त की दृश्यरूप वासना मिटेगी जैसे तरंग से रहित समुद्र शान्तमान् होता है तैसे ही कब मैं मन के संकल्प विकल्प से रहित शान्तिमान् हूँगा? तृष्णारूपी नदी को बोधरूपी बेड़ी और संत् संग और सत्‌शास्त्ररूपी मल्लाह से कब तरूँगा, चित्तरूपी हाथी जो अभिमानरूपी हाथी जो अभिमानरूपी मद से उन्मत्त है उसको विवेकरूपी अंकुश से कब मारूँगा और ज्ञानरूपी सूर्य से अज्ञानरूपी अन्धकार कब नष्ट करूँगा? हे देव! सब आरम्भों को त्यागकर मैं अलेप और अकर्ता कब होऊँगा? जैसे जल में कमल अलेप रहता है तैसे ही मुझको कर्म कब स्पर्श न करेंगे? मेरा परमार्थरूपी भास्वर वपु कब उदय होगा जिससे मैं जगत् की गति को देखकर हँसूँगा हृदय में सन्तोष पाऊँगा और पूर्णबोध विराट् आत्मा की नाईं होऊँगा? वह समय कब होगा कि मुझ जन्मों के अन्धे को ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होगा, जिससे मैं परमबोध पद को देखूँगा? वह समय कब होगा जब मेरा चित्तरूपी मेघ वासना रूपी वायु से रहित आत्मरूपी सुमेरु पर्वत में स्थित होकर शान्तमान् होगा? अज्ञान दशा कब जावेगी और ज्ञानदशा कब प्राप्त होगी? अब वह समय कब होगा कि मन और काया और प्रकृति को देख कर हँसूँगा? वह समय कब होगा जब जगत् के कर्मों को बालक की चेष्टावत् मिथ्या जानूँगा और जगत् मुझको सुषुप्ति की नाईं हो जावेगा । वह समय कब होगा जब मुझको पत्थर की शिलावत् निर्विकल्प समाधि लगेगी और शरीर रूपी वृक्ष में पक्षी आलय करेंगे और निस्संग होकर छाती पर आन बैठेंगे? हे देव! वह समय कब होगा जब इष्ट अनिष्ट विषय की प्राप्ति से मेरे चित्त की वृत्ति चलायमान न होगी और विराट की नाईं सर्वात्मा होऊँगा? वह समय कब होवेगा जब मेरा सम असम आकार शान्त हो जावेगा और सब अर्थों से निरिच्छितरूप मैं हो जाऊँगा? कब मैं उपशम को प्राप्त होऊँगा-जैसे मन्दराचल से रहित क्षीरसमुद्र शान्तिमान् होता है-और कब मैं अपना चेतन वपु पाकर शरीर को अशरीरवत् देखूँगा? कब मेरी पूर्ण चिन्मात्र वृत्ति होगी और कब मेरे भीतर बाहर की सब कलना शान्त हो जावेंगी और सम्पूर्ण चिन्मात्र ही का मुझे भान होगा? मैं ग्रहण त्याग से रहित कब संतोष पाऊँगा और अपने स्वप्रकाश में स्थित होकर संसाररूपी नदी के जरामरणरूपी तरंगों से कब रहित होऊँगा और अपने स्वभाव में कब स्थित होऊँगा? हे रामजी! ऐसे विचारक उद्दालक चित्त को ध्यान में लगाने लगा, परन्तु चित्तरूपी वानर दृश्य की ओर निकल जाये पर स्थित न हो । तब वह फिर ध्यान में लगावे और फिर वह भोगों की ओर निकल जावे । जैसे वानर नहीं ठहरता तैसे ही चित्त न ठहरे । जब उसने बाहर विषयों को त्यागकर चित्त को अन्तर्मुख किया तब भीतर जो दृष्टि आई तो भी विषयों को चिन्तने लगा, निर्विकल्प न हो और जब रोक रक्खे तब सुषुप्ति में लीन हो जावे । सुषुप्ति और लय जो निद्रा है उसही में चित्त रहे । तब वह वहाँ से उठकर और स्थान को चला-जैसे सूर्य सुमेरु की प्रदक्षिणा को चलाता है और गन्धमादन पर्वत की एक कन्दरा में स्थित हुआ जो फूलों से संयुक्त सुन्दर और पशु पक्षी मृगों से रहित एकान्त स्थान था और जो देवता को भी देखना कठिन था । वहाँ अत्यन्त प्रकाश भी न था और अत्यन्त तम भी न था, न अत्यन्त उष्ण था और न शीत जैसे मधुर कार्त्तिक मास होता है तैसे ही वह निर्भय एकान्त स्थान था । जैसे मोक्ष पदवी निर्भय एकान्तरूप होती है तैसे ही उस पर्वत में कुटी बना और उस कुटी में तमाल पर और कमलों का आसनकर और ऊपर मृगछाला बिछाकर वह बैठा और सब कामना का त्यागकिया । जैसे ब्रह्माजी जगत् को उपजाकर छोड़ बैठे तैसे ही वह सब कलना को त्याग बैठा और विचार करने लगा कि अरे मूर्ख मन! तू कहाँ जाता है, यह संसार मायामात्र है और इतने काल तू जगत् में भटकता रहा, पर कहीं तुझको शान्ति न हुई, वृथा धावता रहा । हे मूर्ख मन! उपशम को त्यागकर भोगों की ओर धावता है सो अमृत को त्यागकर विषका बीज बोता है, यह सब तेरी चेष्टा दुःखोंके निमित्त है । जैसे कुशवारी अपना घर बनाकर आप ही को बन्धन करती है तैसे ही तू भी आपको आप संकल्प उठाकर बन्धन करता है । अब तू संकल्प के संसरने को त्यागकर आत्मपद में स्थित हो कि तुझको शान्ति हो । हे मन जिह्वा के साथ मिलकर जो तू शब्द करता है वह दर्दुर के शब्दवत् व्यर्थ है । कानों के साथ मिलकर सुनता है तब शुभ अशुभ वाक्य ग्रहण करके मृग की नाईं नष्ट होता त्वचा के साथ मिलकर जो तू स्पर्श की इच्छा करता है सो हाथी की नाईं नष्ट होता है, रसना के स्वाद की इच्छा से मछली की नाईं नष्ट होता है और गन्ध लेने की इच्छा से भँवरे की नाईं नष्ट हो जावेगा । जैसे भँवरा सुगन्ध के निमित्त फूल में फँस मरता है तैसे तू फँस मरेगा और सुन्दर स्त्रियों की वाच्छा से पतंग की नाईं जल मरेगा । हे मूर्ख मन! जो एक इन्द्रिय का भी स्वाद लेते हैं वे नष्ट होते हैं तू तो पञ्चविषय का सेवनेवाला है क्या तेरा नाश न होगा ।इससे तू इनकी इच्छा त्याग कि तुझको शान्ति हो । जो इन भोगों की इच्छा न त्यागेगा तो मैं ही तुझको त्यागूँगा । तू तो मिथ्या असत्यरूप है तुझको मेरा क्या प्रयोजन है । विचार कर मैं तेरा त्याग करता हूँ । हे मूर्ख मन! जो तू देह में अहं अहं करता है सो तेरा अहं किस अर्थ का है । अंगुष्ठ से लेकर मस्तक पर्यन्त अहं वस्तु कुछ नहीं । यह शरीर तो अस्थि, माँस और रक्त का थैला है, यह तो अहंरूप नहीं और पोल आकाशरूप है । यह पञ्चतत्त्वों का जो शरीर बना है उसमें अहंरूप वस्तु तो कुछ नहीं है । हे मूर्ख मन! तू अहं अहं क्यों करता है? यह जो तू कहता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ मैं स्पर्श करता हूँ, मैं स्वाद लेता हूँ और इनके इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष से जलता है सो वृथा कष्ट पाता है । रूप को नेत्र ग्रहण करते हैं, नेत्र रूप से उत्पन्न हुए हैं और तेज का अंश उनमें स्थित है जो अपने विषय को ग्रहण करता है, इसके साथ मिलकर तू क्यों तपायमान होता है? शब्द आकाश में उत्पन्न हुआ है और आकाश का अंश श्रवण में स्थित है जो अपने गुण शब्द को ग्रहण करता है इसके साथ मिलकर तू क्यों रागद्वेष कर तपायमान होता है? स्पर्श इन्द्रिय वायु से उत्पन्न हुई है और वायु का अंश त्वचा में स्थित है वही स्पर्श को ग्रहण करता है, उससे मिलकर तू क्यों रागद्वेष से तपायमान होता है? रसना इन्द्रिय जल से उत्पन्न हुई है और जल का अंश जिह्वा है जो अग्रभाग में स्थित है वही रस ग्रहण करती है, इससे मिलकर तू क्यों वृथा तपाय मान होता है? और घ्राण इन्द्रिय गन्ध से उपजी है और पृथ्वी का अंश घ्राण में स्थित है वही गन्ध को ग्रहण करती है, उसमें मिलकर तू क्यों वृथा रागद्वेषवान् होता है? मूर्ख मन! इन्द्रियाँ तो अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं पर तू इनमें अभिमान करता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, मैं स्पर्श करता हूँ और रस लेता हूँ । यह इन्द्रियाँ तो सब आत्मभर हैं अर्थात् अपने विषय को ग्रहण करती हैं और के विषय को ग्रहण नहीं करती कि नेत्र देखते हैं श्रवण नहीं करते और कान सुनते हैं देखते नहीं इत्यादिक । सब इन्द्रियाँ अपना धर्म किसी को देती भी नहीं और न किसी का लेती हैं । वे अपने धर्म में स्थित हैं और विषय को ग्रहण कर इनको रागद्वेष कुछ नहीं होता । इनको ग्रहण करने की वासना भी कुछ नहीं होती और तू ऐसा मूर्ख है कि औरों के धर्म आपमें मानकर रागद्वेष से जलता है । जो तू भी राग द्वेष से रहित होकर चेष्टा करे तो तुझको दुःख कुछ न हो । जो वासना सहित कर्म करता है वह बन्धन का कारण होता है, वासना बिना कुछ दुःख नहीं होता । तू मूर्ख है जो विचार कर नहीं देखता इससे मैं तुझको त्याग करता हूँ । तेरे साथ मिल के मैं बड़े खेद पाता हूँ । जैसे भेड़िये के बालक को सिंह चूर्ण करता है तैसे ही तूने मुझको चूर्ण किया है । तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हुआ हूँ । अब तेरे साथ मेरा प्रयोजन कुछ नहीं, मैं तो निर्विकल्प शुद्ध चिदानन्द हूँ । जैसे महाकाशा घट से मिल कर घटाकाश होता हे तैसे ही तेरे साथ मिलकर मैं तुच्छ हो गया हूँ । इस कारण मैं तेरा संग त्यागकर परम चिदाकाश को प्राप्त होऊँगा । मैं निर्विकार हूँ और अहं त्वं की कल्पना से रहित हूँ । तू क्यों अहं त्वं करता है? शरीर में व्यर्थ अहं करनेवाला और कोई नहीं तू ही चोर है । अब मैंने तुझको पकड़कर त्याग दिया है । तू तो अज्ञान से उपजा मिथ्या और असत्यरूप है जैसे बालक अपनी परछाहीं में वैताल जानकर आप भय पाता है तैसे ही तूने सबको दुःखी किया है । जब तेरा नाश होगा तब आनन्द होगा । तेरे उपजने से महादुःख है-जैसे कोई ऊँचे पर्वत से गिरके कूप में जा पड़े और कष्टवान हो तैसे ही तेरे संग से मैं आत्मपद से गिरा देह अभिमानरूपी गढ़े में रागद्वेषरूपी दुःख पाता था, पर अब तुझको त्यागकर मैं निरहंकारपद को प्राप्त हुआ हूँ । वह पद न प्रकाश है, न एक है, न दो है, न बड़ा है और न छोटा है, अहं त्वं आदि से रहित अचैत्य चिन्मात्र है । जरा मृत्यु रागद्वेष और भय सब तेरे संयोग से होते हैं । अब तेरे वियोग से मैं निर्विकार शुद्ध पद को प्राप्त होता हूँ । हे मन! तेरा होना दुःख का कारण है । जब तू निर्वाण हो जावेगा तब मैं ब्रह्मरूप होऊँगा । तेरे संग से मैं तुच्छ हुआ हूँ, जब तू निवृत्त होगा तब मैं शुद्ध होऊँगा-जैसे मेघ और कुहिरे के होने से आकाश मलीन भासता है पर जब वर्षा हो जाती है तब शुद्ध और निर्मल हो रहता है, तैसे ही तेरे निवृत्त हुए निर्लेप अपना आप आत्मा भासता है । हे चित्त! ये जो देह इन्द्रियादिक पदार्थ हैं सो भिन्न हैं, इनमें अहं वस्तु कुछ नहीं, इनको एक तूने ही इकट्ठी किया है । जैसे एक तागा अनेक मणियों को इकट्ठा करता है तैसे ही सबको इकट्ठा करके तू अहं अहं करता है । तू मिथ्या रागद्वेष करता है इससे तू शीघ्र ही सब इन्द्रियों को लेकर निर्वाण हो जिससे तेरी जय हो । 

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