श्री योग वशिष्ठ महारामायण के बारे में ........


श्री योगवशिष्ठ महारामायण हमारे सभी आश्रमों का इष्ट ग्रंथ है- पूज्य बापूजी

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढे, और उसके अर्थ में शांत हो, तो साक्षात्कार अवश्य होगा - स्वामी रामतीर्थ

श्री योगवशिष्ठ महारामायण पढ़कर ही पूज्य बापूजी के मित्र संत घाटवाले बाबा को आत्मसाक्षात्कार हुआ |

Friday, January 21, 2011

हे रामजी! यह मन परम दुःख का कारण है

वसिष्ठजी बोले, हे रामजी! मूढ़ अज्ञानी पुरुष अपने संकल्प से आप ही मोह को प्राप्त होता है और जो पण्डित है वह मोह को नहीं प्राप्त होता । जैसे मूर्ख बालक अपनी पर छाहीं में पिशाच कल्पकर भय पाता है तैसे ही मूर्ख अपनी कल्पना से दुःखी होता है । रामजी बोलेहे भगवन् ! ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ! वह संकल्प क्या है और छाया क्या है जो असत्य ही सत्यरूप पिशाच की नाईं दीखती है? वशिष्ठजी बोले , हे रामजी! पाञ्च भौतिक शरीर परछाहीं की नाईं है, क्योंकि अपनी कल्पना से रचा है और अहंकाररूपी पिशाच है । जैसे मिथ्या परछाहीं में पिशाच को देख के मनुष्य भयवान् होता है तैसे ही देह में अहंकार को देखके खेद प्राप्त होता है । हे रामजी! एक परम आत्मा सर्व में स्थित है तब अहंकार कैसे हो वास्तव में अहंकार कोई नहीं परमात्मा ही अभेद रूप है और उसमें अहंबुद्धि भ्रम से भासती है । जैसे मिथ्यादर्शी को मरुस्थल में जल भासता है तैसे ही मिथ्याज्ञान से अहंकार कल्पना होती है । जैसे मणि का प्रकाश मणि पर पड़ता है सो मणि से भिन्न नहीं, मणिरूप ही है, तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है सो आत्मा ही में स्थित है । जैसे जल में द्रवता से चक्र और तरंग हो । भासते हैं सो जलरूप ही हैं, तैसे ही आत्मा में चित्त से जो नानात्व हो भासता है सो आत्मा से भिन्न नहीं, असम्यक् दर्शन से नानात्व भासता है । इससे असम्यक् दृष्टि को त्याग के आनन्दरूप का आश्रय करो और मोह के आरम्भ को त्याग कर शुद्ध बुद्धि सहित विचारो और विचार से सत्य ग्रहण करो, असत्य का त्याग करो । हे रामजी! तुम मोह का माहात्म्य देखो कि स्थूलरूप देह को नाशवन्त है उसके रखने का उपाय करता है परे वह रहता नहीं और जिस मनरूपी शरीर के नाश हुए कल्याण होता है उसको पुष्ट करता है । हे रामजी! सब मोह के आरम्भ मिथ्या भ्रम से दृढ़ हुए हैं, अनन्त आत्मतत्त्व में कोई कल्पना नहीं, कौन किसको कहे । जो कुछ नानात्व भासता है वह है नहीं और जीव ब्रह्म से अभिन्न है । उस ब्रह्मतत्त्व में किसे बन्ध कहिये और किसे मोक्ष कहिये, वास्तव में न कोई बन्ध है न मोक्ष है, क्यों कि आत्मसत्ता अनन्तरूप है । हे रामजी! वास्तव में द्वैतकल्पना कोई नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आप में है । जो आत्मतत्त्व अनन्त है वही अज्ञान से अन्य की नाईं भासता है । जब जीव अनात्म में आत्माभिमान करता है तब परिच्छिन्न कल्पना होती है और शरीर को अच्छेदरूप जान के कष्टवान् होता है पर आत्मपद में भेद अभेद विकार कोई नहीं क्योंकि वह तो नित्य, शुद्ध, बोध और अविनाशी पुरुष है । हे रामजी! आत्मा में न कोई विकार है, न बन्धन है और न मोक्ष है, क्योंकि आत्मतत्त्व अनन्तरूप, निर्विकार, अच्छेद, निराकार और अद्वैतरूप है । उसको बन्ध विकार कल्पना कैसे हो? हे रामजी! देह के नष्ट हुए आत्मा नष्ट नहीं होता । जैसे चमड़ी में आकाश होता है तो वह चमड़ी के नाश हुए नष्ट नहीं होता तैसे ही देह के नाश हुए गन्ध आकाश में लीन होती है, जैसे कमल पर बरफ पड़ता है तो कमल नष्ट हो जाता है भ्रमर नष्ट नहीं होता और जैसे मेघ के नाश हुए पवन का नाश नहीं होता, तैसे ही देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता । हे रामजी! सबका शरीर मन है और वह आत्मा की शक्ति है, उसमें यह जगत् आदिक जगत् रचा है । उस मन का ज्ञान बिना नाश नहीं होता तो फिर शरीर आदि के नष्ट हुए आत्मा का नाश कैसे हो? हे रामजी! शरीर के नष्ट हुए तुम्हारा नाश नहीं होगा, तुम क्यों मिथ्या शोकवान् होते हो? तुम तो नित्य, शुद्ध और शान्तरूप आत्मा हो । हे रामजी! जैसे मेघ के क्षीण हुए पवन क्षीण नहीं होता और कमलों के सूखे से भ्रमर नष्ट नहीं होता तैसे ही देह के नष्ट हुए आत्मा नहीं नष्ट होता । संसार में क्रीड़ा कर्ता जो मन है उसका संसार में नाश नहीं होता तो आत्मा का नाश कैसे हो? जैसे घट के नाश हुए घटाकाश नाश नहीं होता । हे रामजी! जैसे जल के कुण्ड में सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है और उस कुण्ड के नाश हुए प्रतिबिम्ब का नाश नहीं होता, यदि उस जल को और ठौर ले जायं तो प्रतिबिम्ब भी चलता भासता है तैसे ही देह में जो आत्मा स्थित है सो देह के चलने से चलता भासता है । जैसे घट के फूटे से घटाकाश महाकाश में स्थित होता है तैसे ही देह के नाश हुए आत्मा निरामयपद में स्थित होता है । हे रामजी! सब जीवों का देह मनरूपी है । जब वह मृतक होता है तब कुछ काल पर्यन्त देश-काल और पदार्थ का अभाव हो जाता है और इसके अनन्तर फिर पदार्थ भासते हैं उस मूर्च्छा का नाम मृतक है । आत्मा का नाश तो नहीं होता चित्त की मूर्च्छा से देश, काल और पदार्थों के अभाव होने का नाम मृतक है । हे रामजी! संसारभ्रम का रचनेवाला जो मन है उसका ज्ञानरूपी अग्नि से नाश होता है, आत्मसत्ता का नाश कैसे हो? हे रामजी! देश काल और वस्तु से मन का निश्चय विपर्यय भाव को प्राप्त होता है; चाहे अनेक यत्न करे परन्तु ज्ञान बिना नष्ट नहीं होता । हे रामजी! कल्पितरूप जन्म का नाश नहीं होता तो जगत् के पदार्थों से आत्मसत्ता का नाश कैसे हो? इसलिये शोक किसी का न करना । हे महाबाहो! तुम तो नित्यशुद्ध अविनाशी पुरुष हो । यह जो संकल्प वासना से तुममें जन्म-मरण आदिक भासते हैं सो भ्रममात्र हैं । इससे इस वासना को त्याग के तुम शुद्ध चिदाकाश में स्थित हो जाओ । जैसे गरुड़ पक्षी अण्डा त्याग के आकाश को उड़ता है तैसे ही वासना को त्याग करके तुम चिदाकाश में स्थित हो जाओ । हे रामजी! शुद्ध आत्मा में मनन फुरता है वही मन है, वह मनन शक्ति इष्ट और अनिष्ट से बन्धन का कारण है और वह मन मिथ्या भ्रान्ति से उदय हुआ है । जैसे स्वप्न दृष्टा भ्रान्ति मात्र होता है तैसे ही जाग्रत् सृष्टि भ्रान्तिमात्र है । हे रामजी! यह जगत् अविद्या से बन्धनमय और दुःख का कारण है और उस अविद्या को तारना कठिन है । अविचार से अविद्या सिद्ध है, विचार किये से नष्ट होती है । उसी अविद्या ने जगत् विस्तारा है यह जगत बरफ की दीवार है । जब ज्ञानरूपी अग्नि का तेज होगा तब निवृत्त हो जावेगी । हे रामजी! यह जगत् आशारूप है, अविद्या भ्रान्ति दृष्टि से आकार हो भासता है और असत्य अविद्या से बड़े विस्तार को प्राप्त होता है । यह दीर्घ स्वप्ना है, विचार किये से निवृत्त हो जाता है । हे रामजी! यह जगत् भावनामात्र है, वास्तव में कुछ उपजा नहीं । जैसे आकाश में भ्रांति से मारे मोर के पुच्छ की नाईं तरुवरे भासते हैं तैसे ही भान्ति से जगत् भासता है । जैसे बरफ की शिला तप्त करने से लीन हो जाती है तैसे ही आत्मविचार से जगत् लीन हो जाता है । हे रामजी! यह जगत् अविद्या से बँधा है सो अनर्थ का कारण है । जैसे-जैसे चित्त फुरता है तैसे ही तैसे हो भासता है । जैसे इन्द्रजाली सुवर्ण की वर्षा आदिक माया रचता है तैसे ही चित्त जैसा फुरता है तैसा ही हो भासता है । आत्मा के प्रमाद से जो कुछ चेष्टा मन करता है वह अपने ही नाश के कारण होती है । जैसे घुरान अर्थात् कुसवारी की चेष्टा अपने ही बन्धन का कारण होती है तैसे ही मन की चेष्टा अपने नाश के निमित्त होती है और जैसे नटवा अपनी क्रिया से नाना प्रकार के रूप धारता है तैसे ही मन अपने संकल्प को विकल्प करके नाना प्रकार के भावरूपों को धारता है । जब चित्त अपने संकल्प विकल्प को त्याग कर आत्मा की ओर देखता है तब चित्त नष्ट हो जाता है और जब तक आत्मा की ओर नहीं देखता तब तक जगत् को फैलाता है सो दुःख का कारण होता है । हे रामजी! संकल्प आवरण को दूर करो तब आत्मतत्त्व प्रकाशेगा संकल्प विकल्प ही आत्मा में आवरण है । जब दृश्य को त्यागोगे तब आत्मबोध प्रकाशेगा । हे रामजी! मन के नाश में बड़ा आनन्द उदय होता है और मन के उदय हुए बड़ा अनर्थ होता है, इससे मन के नाश करने का यत्न मत करो । हे रामजी! मन रूपी किसान ने जगत्‌रूपी वन रचा है, उसमें सुखदुःखरूपी वृक्ष हैं और मनरूपी सर्प रहता है । जो विवेक से रहित पुरुष हैं उनको वह भोजन करता है । हे रामजी! यह मन परम दुःख का कारण है; इससे तुम मनरूपी शत्रु को वैराग्य और अभ्यास रूपी खड्ग से मारो तब आत्मपद को प्राप्त होगे ।